साहित्यनामा में ‘अज्ञेय’ की जयंती पर पढ़िए उनकी खास रचनाएँ... साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं

आधुनिक हिंदी साहित्य के विख्यात साहित्यकारों में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का नाम अग्रणी माना जाता है. उन्हें प्रयोगवादी कवि भी कहा गया. 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में पैदा हुए अज्ञेय को हिंदी साहित्य में अपना विशेष योगदान देने के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका हैं। बता दें कि अज्ञेय की कई रचनाएँ जिनमें ‘हरी घास पर क्षणभर’, ‘बावरा अहेरी’, ‘आँगन के द्वार पर’ (कविता), ‘शेखर: एक जीवनी’ (उपन्यास), ‘अरे यायावर रहेगा याद’ (यात्रा वृतांत), ‘उतरप्रियदर्शी’ (नाटक) आदि को बी.ए. और एम.ए. के सिलेबस में विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता हैं।
सहित्यनामा में आज अपने पाठकों के लिए सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय की कुछ बेहतरीन कविताएं यहां पेश कर रहे हैं।
आगंतुक
आँखों ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं।
भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं।
राह मैंने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, गए भी,
—कदाचित्, कई बार—
पर हुआ घर आना नहीं।
प्रार्थना का एक प्रकार
कितने पक्षियों की मिली-जुली चहचहाट में से
अलग गूँज जाती हुई एक पुकार :
मुखड़ों-मुखौटों की कितनी घनी भीड़ों में
सहसा उभर आता एक अलग चेहरा :
रूपों, वासनाओं, उमंगों, भावों, बेबसियों का
उमड़ता एक ज्वार
जिसमें निथरती है एक माँग, एक नाम—
क्या यह भी है
प्रार्थना का एक प्रकार?
महानगर : रात
धीरे-धीरे-धीरे चली जाएँगी सभी मोटरें, बुझ जाएँगी
सभी बत्तियाँ, छा जाएगा एक तनाव-भरा सन्नाटा
जो उसको अपने भारी बूटों से रौंद-रौंद चलने वाले
वर्दीधारी का
प्यार नहीं, किंतु वांछित है।
तब जो इन पत्थर-पिटी पटरियों पर
अपने पैर पटकता और घिसटता
टप्-थब्, टप्-थब्, टप्-थब्
नामहीन आएगा—
तब जो ओट खड़ी खंबे के अँधियारे में चेहरे की मुर्दनी छिपाए
थकी उँगलियों से सूजी आँखों से रूखे बाल हटाती
लट की मैली झालर के पीछे से बोलेगी :
‘दया कीजिए, जैंटिलमैन...’
और लगेगा झूठा जिसके स्वर का दर्द
क्योंकि अभ्यास नहीं है अभी उसे सच के अभिनय का,
तब जो होंठों पर निर्बुद्धि हँसी चिपकाए
मानो सीलन से विवर्ण दीवार पर लगा किसी पुराने
कौतुक-नाटक का फटियल-सा इश्तहार हो,
कुत्तों के कौतूहल के प्रति उदासीन
उसके प्रति भी जिसको तुमने सन्नाटे की रक्षा पर तैनात किया है,
धुआँ-भरी आँखों से अपनी परछाईं तक बिन पहचाने,
तन्मय—हाँ, सस्ती शराब में तन्मय—
चला जा रहा होगा धीरे-धीरे-धीरे—
बोलो, उसको देने को है
कोई उत्तर?
होगा?
होगा?
क्या? ये खेल-तमाशे, ये सिनेमाघर और थिएटर?
रंग-बिरंगी बिजली द्वारा किए प्रचारित
द्रव्य जिन्हें वह कभी नहीं जानेगा?
यह गलियों की नुक्कड़-नुक्कड़ पर पक्के पेशाबघरों की सुविधा,
ये कचरा-पेटियाँ सुघड़ (आह कचरे के लिए यहाँ कितना आकर्षण!)?
असंदिग्ध ये सभी सभ्यता के लक्षण हैं
और सभ्यता बहुत बड़ी सुविधा है सभ्य तुम्हारे लिए!
किंतु क्या जाने ठोकर खाकर कहीं रुके वह,
आँख उठाकर ताके और अचानक तुमको ले पहचान—
अचानक पूछे धीरे-धीरे-धीरे
‘हाँ, पर मानव
तुम हो किसके लिए?’
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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय की कविता साँप
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?