साहित्यनामा : हिन्दी साहित्य के 'दद्दा' राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, 12 की उम्र की लिखी रचनाएं, हिंदी का बढ़ाया मान
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को हिन्दी साहित्य के इतिहास में खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है. 3 अगस्त 1886 को उत्तर प्रदेश में झांसी के पास चिरगांव में उनका जन्म हुआ. उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी. उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में गुप्त की रचनाओं ने नए आयाम स्थापित किये. 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर उनकी प्रमुख रचना 'नर हो, न निराश करो मन को' साहित्यनामा में पढ़िये .
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को
सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोत्तैर गुंजित गान रहे
सब जाए अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को
प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्तस करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरंतर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो