Prayagraj mahakumbh 2025: जीवन में सनातन की खोज, संगम के तट पर सरस्वती के साधक
सनातन का पूरा विराट स्वरूप ही मनुष्य के जीवन को आलोकमय बनाने के साधन हैं। डॉ विद्यानिवास मिश्र ने कुंभ के बारे में सनातनता के सन्दर्भ में लिखा है जिसमें एक खोज है, सत्य का अन्वेषण है, जिसे निरन्तर जारी रहना है।
Prayagraj mahakumbh 2025: कुंभ हमारी संस्कृति में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। पूर्णता प्राप्त करना हमारा लक्ष्य है, पूर्णता का अर्थ है समग्र जीवन के साथ एकता, अंग को पूरे अंगी की प्रतिस्मृति, एक टुकड़े के रूप में होते हुए अपने समूचे रूप का ध्यान करके अपने छुटपन से मुक्ति। इस पूर्णता की अभिव्यक्ति है पूर्ण कुंभ। अथर्ववेद में एक कालसूक्त है, जिसमें काल की महिमा गाई गई है। इसी के अंदर एक मंत्र है, जहां शायद 'पूर्ण कुंभ' शब्द का प्रयोग मिलता है, वह मंत्र इस प्रकार है-
पूर्ण: कुम्भोधिकाल आहितस्तं
वै पश्यामो जगत् ता इमा
विश्वा भुवनानि प्रत्युङ्बहुधा
नु सन्त: कालं तमाहु परमे व्योमन्।
इसका मोटा अर्थ है-पूर्ण कुंभ काल में रखा हुआ है, हम उसे देखते हैं तो जितने भी अलग-अलग गोचर भाव हैं, उन सबमें उसी की अभिव्यक्ति पाते हैं, जो काल परम व्योम में है। अनंत और अंत वाला काल दो नहीं, एक है; पूर्ण कुंभ दोनों को भरने वाला है। पुराणों में अमृत-मंथन की कथा आती है, उसका भी अभिप्राय यही है कि अनंत को समस्त सृष्टि के अलग-अलग तत्व मथते हैं तो अमृत कलश उद्भूत होता है। अमृत की चाह देवता, असुर सबको है, इस अमृत कलश को जगह-जगह देवगुरु बृहस्पति द्वारा अलग-अलग काल-बिन्दुओं पर रखा गया। वे जगहें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक हैं, जहां उन्हीं काल बिन्दुओं पर कुंभ पर्व बारह-बारह वर्षों के अंतराल पर आता है, बारह वर्ष का फेरा बृहस्पति के राशि मंडल में घूम आने का फेरा है। बृहस्पति वाक् के देवता हैं- मंत्र के, अर्थ के, ध्यान के देवता हैं। वे देवताओं के प्रतिष्ठापक हैं। यह अमृत वस्तुत: कोई द्रव पदार्थ नहीं है, यह मृत न होने का, जीवन की आकांक्षा से पूर्ण होने का भाव है। देवता अमर हैं, इसका अर्थ इतना ही है कि उनमें जीवन की अक्षय भावना है। चारों महाकुंभ उस अमृत भाव को प्राप्त करने के पर्व हैं।
मृत्यु का भय क्यों?
ये कुंभ पर्व इसका स्मरण दिलाते हैं कि तुम्हारा अधूरापन जब तक रहता है, तुम्हारी विच्छिन्नता जब तक रहती है, तुम्हारा अपने से भिन्न के प्रति अलगाव जब तक रहता है तब तक तुम मृत्यु के घेरे में हो, मृत्यु के भय से ग्रस्त हो। जब तुम सोच लेते हो, यह सब कुछ मैं हूं, मुझमें ही सब कुछ है, मैं कुंभ हूं, जिसमें काल है और काल में है, तब मृत्यु घेरा नहीं रह जाती, वह पड़ाव बन जाती है; वह वैदिक ऋषियों के शब्दों में यज्ञ समाप्ति का स्नान बन जाती है। कुंभ स्नान में यही स्मरण कहीं-न-कहीं अंतर्निहित है कि हम अमुक रूप में विलीन हो रहे हैं, हम जल के भीतर से संपूर्ण बनकर निकल रहे हैं-जीवन के भाव से भरकर, अमृत होकर, अमृत संतान होकर। हमें यह न भूलना चाहिए कि अमृत विष का सगा भाई है। हम अहंकार-मंथन करते हैं तो पहले विष ही निकलता है, वह कम लुभावना नहीं होता। जीने की एक लालसा ऐसी भी होती है जब हम अपने लिए ही जीवन का समस्त उपभोग चाहते हैं, वह लालसा विष है। जिस जीवन की लालसा अमृत है, उसमें जीना अपने लिए, भोग अपने लिए नहीं, सबके लिए है, दूसरे से बचे तो अपने लिए है। परम अमृत है उच्छिष्ट भाव, सबका जूठन बन जाना, सृष्टिमात्र को निवेदित होकर बच जाना, वही भाव सार्थक अस्तित्व है। पूर्ण से पूर्ण को उलीच देने पर जो बचता है वह पूर्णतर है।
'कुंभ' शब्द का एक अर्थ है रोकना, प्राणों के नियमन को कुंभक कहते हैं। प्राणायाम के तीन हिस्से होते हैं, पूरक-सांस भरना, कुंभक-सांस रोकना, रेचक- सांस छोड़ना। बीच में है कुंभक। यह शरीर भी एक कुंभ है, घर है। इसमें प्राणों का प्रवाह है, पर जब हम प्राणों को रोककर पूरे शरीर को प्राणमय बनाते हैं तो यह घर पूर्ण हो जाता है, पर पूर्ण बने रहने में क्या रखा है, खाली हो-होकर पूर्ण होने के लिए आकुल होना, यही वास्तविक पूर्णता है। कुंभ पर्व सांसों का मेला है, सांसों का त्योहार है। कितनी लाख-लाख सांसें एक -दूसरे से मिलती हैं, कितनी सांसें भरती हैं, कितनी सांसें खाली होती हैं, कितना उच्छ्वास होता है, आज गंगा-स्नान हुआ, कितना नि:श्वास होता है, जीवन हमने कितना खोया, किन व्यर्थ प्रपंचों में हमने अपनी सांस गंवाई, असंख्य-असंख्य लोगों के भीतर रहते हुए, विशाल महासागर की लहर के रूप में अपने को अनुभव करते हुए कितनी विशालता का बोध होता है और यही कभी अपने साथ के लोगों से बिछुड़ने पर कितनी असहायता, कितनी विपन्नता का बोध होता है। यह पूरक, यह रेचक, यह कुंभक-सभी महाकुंभ का ही एक रूप है।
देह को साधो
कुंभ को इस रूप में लेना और अपने शरीर के भीतर कुंभ को देखना एक सहज भाव उमड़ाता है, जो ब्रह्माण्ड में है। इस भाव के उमड़ने से देह के प्रति एक दूसरी तरह की भावना हो जाती है, यह साधन धाम है, पर कंचन-काया है। हम खामखाह इसे अपदार्थ माने हुए हैं, इस देह को साधने की जरूरत है; इस देह को इंद्रियों के साथ, मन के साथ, बुद्धि के साथ और आत्मा के साथ जोड़ने की जरूरत है। इस देह को कमल के रूप में देखने की जरूरत है, ऐसे कमल के रूप में, जिसका नाल जितना जल के ऊपर है उतना जल के भीतर है, जिसकी पुरइन रूपी चिति पर पानी की बूंदें आती हैं, ढुलक जाती हैं, टिकतीं नहीं; जिसके कोष में से स्रष्टा निकलते हैं। प्रत्येक व्यक्ति केवल घड़ा ही नहीं है, वह घड़े के साथ-साथ उस पर रखा गया पंच पल्लव है, पूर्ण पात्र है, पूर्ण पात्र पर रखा गया दीप है, बाहर गोंठी गई रचना है, उस रचना में कोंसा गया जौ है और जौ का अंकुर रूपांतर है। दूसरे शब्दों में, वह एक छोटा विश्व है, जो जैसा है वैसा ही रहना नहीं चाहता, वह उगना चाहता है, वह आलोकित करना चाहता है, यह भाव भरने की जरूरत है।
मंगलमय कुंभाभिषेक
ऐसे कुंभ से जल सींचा जाता है तो अभिवृद्धि होती है। यही आस्था का जल के रूप में निष्यंद है। कुंभ पर्व मनुष्य को आस्था में अभिषिक्त करने के लिए तो है ही, वह मनुष्य को अभिषेक का द्रव बनाने के लिए भी है। द्रव के संपर्क से द्रव बनता है, इसलिए उस तप की भावना का स्मरण ऐसे पर्व के अवसर पर आवश्यक है, जिसने गंगा को द्रवित किया, जिसने गंगा को सर्वजन कल्याण के लिए उन्मोचित किया, जिसने गंगा के किनारे तप करके इसकी धारा को संस्कृति की मुख्य धारा बनाया। तपोवन-आस्था तप के बिना, जीवन के कठिन निर्वाह के बिना जड़ होती है। इस महाकुंभ पर बार-बार याद करें, तभी आप मंगलमय कुंभाभिषेक के अधिकारी होंगे।
बहुत सारे लोग भीड़ जुटाते हैं, बड़े-बड़े आयोजन करते हैं, रैलियां निकालते हैं; लेकिन यहां लोग अपने आप खिंचे चले आते हैं-किसी की स्तुति के लिए नहीं, किसी बेगार के लिए नहीं, अपने विस्तार के लिए, चित्त के विस्तार के लिए, ज्ञान के विस्तार के लिए। ऐसे भाव के विस्तार के लिए जिसके आगे दूसरे छोटे पड़ जाते हैं। यह भाव है विराट रूप में साथ रू-बरू होना। पहले यशोदा को विराट का दर्शन हुआ, दुर्योधन की सभा में विराट का दर्शन, पुन: महाभारत के युद्ध में अर्जुन को विराट का दर्शन और यह दर्शन व्याकुल कर देता है, सिहरन पैदा कर देता है, आशंका पैदा कर देता है, घबड़ाहट पैदा कर देता है, अर्जुन ने कहा- भगवान, जल्दी से जल्दी इस रूप को समेटो। यशोदा को चिंता हो गई कि छोटे से बच्चे के तनिक से मुंह में इतना बड़ा बवंडर, और भगवान ने अपना कौतुक समेट लिया। किंतु कुंभ में जिस विराट का दर्शन होता है, लगता ही नहीं कि कोई नई बात हो रही है। अपरिचय में परचिय का दर्शन होता है, अनात्मीयता में आत्मीयता का दर्शन होता है।
यह कुंभ सारे भारत को जोड़ने का काम सहस्राब्दियों से कर रहा है। देवता अमृत कलश से अमर हुए, देवता जानें: पर आदमी समय-समय पर एक विशेष प्रकार की अमरता पाता रहता है। यही महाकुंभ के आयोजन का चरम उद्देश्य है। यह अमरत्व एक देह में अनंत काल तक बने रहना नहीं है, यह अमरत्व नश्वर देह में मृत्यु की लघुता और जीवन की अखंडता का है। ऐसे पर्व के समय, सभी ऐसे क्षण में यही भाव जगता है कि सारी कामनाएं क्षार (भस्म) होकर जल की तरलता से एकाकार हो जाएं।
डॉ विद्यानिवास मिश्र का आलेख