Supreme Court vs Central Government:केंद्र की दो-टूक,राष्ट्रपति की सलाह पर अदालत का दखल नहीं चलेगा, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में जताई आपत्ति, केंद्र बनाम सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक टकराव की आहट

Supreme Court vs Central Government:केंद्र सरकार ने साफ शब्दों में सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि वह राष्ट्रपति को यह निर्देश नहीं दे सकती कि कब, कैसे और किन विधेयकों पर वह शीर्ष अदालत से राय लें।

Supreme Court vs Central Government
राष्ट्रपति की सलाह पर अदालत का दखल नहीं चलेगा- फोटो : social Media

Supreme Court vs Central Government: भारत की राजनीति और न्यायपालिका के बीच एक बड़ा टकराव उभरता दिखाई दे रहा है। केंद्र सरकार ने साफ शब्दों में सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि वह राष्ट्रपति को यह निर्देश नहीं दे सकती कि कब, कैसे और किन विधेयकों पर वह शीर्ष अदालत से राय लें। केंद्र का रुख स्पष्ट है राष्ट्रपति और राज्यपाल संविधान के तहत अपने पूर्ण विवेक से काम करते हैं और उन पर कोई समयसीमा थोपना संवैधानिक ढांचे के साथ खिलवाड़ होगा।

दरअसल, मामला उन विधेयकों से जुड़ा है जिन्हें राज्य विधानसभाओं से पारित होने के बाद राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। कई बार लंबे समय तक इन पर निर्णय नहीं हो पाता, जिसे लेकर न्यायालय ने प्रश्न खड़ा किया था। लेकिन केंद्र ने इस पर सख्त आपत्ति जताते हुए कहा कि अदालतें राष्ट्रपति या राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं।

केंद्र ने लिखित दलीलों में कहा है कि यदि न्यायपालिका राष्ट्रपति को बाध्य करती है कि वह हर आरक्षित विधेयक पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लें, तो यह संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध होगा। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में दाखिल अपने नोट में कहा कि इस तरह का कदम तीनों संवैधानिक अंगों के बीच स्थापित संवेदनशील संतुलन को तोड़ देगा और शासन का ढांचा अस्थिर हो जाएगा।

केंद्र ने यह भी कहा कि यदि किसी स्तर पर चूक होती है तो उसका समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही होगा। जैसे चुनावी जवाबदेही, विधायी निरीक्षण और राजनीतिक विमर्श। न्यायालय इसमें दखल देकर ‘संवैधानिक और विधायी प्रक्रिया’ को उलट नहीं सकता।मेहता ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल का पद केवल एक औपचारिक पद नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा और “लोकतांत्रिक शासन के उच्च आदर्शों” का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए किसी भी तरह की देरी या विवाद का समाधान न्यायालय नहीं, बल्कि राजनीतिक और संवैधानिक प्रक्रिया के माध्यम से होना चाहिए।

केंद्र ने विशेष तौर पर अनुच्छेद 200 और 201 का उल्लेख किया। ये अनुच्छेद राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधानसभा से आए विधेयकों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया से जुड़े हैं। केंद्र का कहना है कि संविधान ने जानबूझकर इन अनुच्छेदों में कोई समयसीमा नहीं रखी है।जब संविधान निर्माताओं ने समयसीमा लगानी चाही, तो उन्होंने ऐसा स्पष्ट तौर पर किया। इसलिए अब न्यायालय द्वारा समयसीमा तय करना संविधान में संशोधन करने जैसा होगा—जो कि अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।

केंद्र ने चेतावनी दी है कि अगर सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल पर समयसीमा थोपता है तो इससे “संवैधानिक अव्यवस्था” पैदा होगी। राष्ट्रपति और राज्यपाल की सहमति को एक “विशेषाधिकार और पूर्ण शक्ति” बताया गया, जो किसी अन्य अंग के हस्तक्षेप से परे है।केंद्र सरकार का रुख साफ है राष्ट्रपति और राज्यपाल संवैधानिक रूप से स्वतंत्र एवं सर्वोच्च विवेकाधिकार वाले पद हैं। उन पर कोई समयसीमा या न्यायिक निर्देश थोपना संविधान के मूल ढांचे के साथ छेड़छाड़ होगा। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ अब इस मसले पर क्या रुख अपनाती है, इस पर पूरे देश की नजरें टिकी हैं।

यह मामला केवल विधेयकों की प्रक्रिया तक सीमित नहीं है, बल्कि यह तय करेगा कि लोकतंत्र में न्यायपालिका, कार्यपालिका और राष्ट्रपति के बीच शक्ति-संतुलन की रेखा कहां खींची जाएगी।