Bihar News:विश्वविद्यालय की ‘गजब गड़बड़ी’, बर्खास्त सहायक प्राध्यापक को बनाया परीक्षक, छात्रों के भविष्य से खिलवाड़
Bihar News: बिहार के शिक्षा तंत्र में एक और ‘महान’ उपलब्धि जुड़ गई है! UGC ने गलत प्रमाणपत्र के आरोप में एक सहायक प्राध्यापक को बर्खास्त किया था, लेकिन विवि उसी शिक्षक को स्नातक थर्ड सेमेस्टर की कॉपियों के मूल्यांकन के लिए परीक्षक नियुक्त कर दिया...

Muzaffarpur: बिहार के शिक्षा तंत्र में एक और ‘महान’ उपलब्धि जुड़ गई है! बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय (बीआरएबीयू), मुजफ्फरपुर, ने अपनी लापरवाही और अक्षमता का नया नमूना पेश किया है। विश्वविद्यालय सेवा आयोग ने गलत प्रमाणपत्र के आरोप में 29 अप्रैल 2025 को दर्शनशास्त्र के एक सहायक प्राध्यापक को बर्खास्त किया था, लेकिन बीआरएबीयू के ‘जिम्मेदार’ परीक्षा विभाग ने उसी शिक्षक को 2 मई 2025 को स्नातक थर्ड सेमेस्टर की कॉपियों के मूल्यांकन के लिए परीक्षक नियुक्त कर दिया। यह गड़बड़ी इतनी बड़ी है कि यह न केवल विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल उठाती है, बल्कि हजारों छात्रों के भविष्य को भी दांव पर लगा देती है। और सबसे मजेदार बात? विवि प्रशासन इस ‘महान कारनामे’ पर चुप्पी साधे हुए है, मानो कुछ हुआ ही न हो!
मामला शुरू होता है विश्वविद्यालय सेवा आयोग की कार्रवाई से। 29 अप्रैल 2025 को आयोग ने बेतिया के एक अंगीभूत कॉलेज में पदस्थापित दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक को गलत प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के आरोप में बर्खास्त कर दिया। आयोग ने इस शिक्षक को ‘चयन मुक्त’ करने का पत्र जारी किया, यानी उनकी नियुक्ति को ही अवैध ठहरा दिया। यह कार्रवाई अपने आप में गंभीर थी, क्योंकि यह साबित करता है कि शिक्षक ने फर्जी दस्तावेजों के बल पर नौकरी हासिल की थी। लेकिन बीआरएबीयू के परीक्षा विभाग ने इस गंभीरता को ठेंगा दिखाते हुए, मात्र तीन दिन बाद, 2 मई 2025 को उसी शिक्षक का नाम स्नातक थर्ड सेमेस्टर के परीक्षकों की सूची में शामिल कर लिया।
यह गलती नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली में गहरी सड़ांध का सबूत है। एक बर्खास्त शिक्षक, जिसकी योग्यता और ईमानदारी पर पहले ही सवाल उठ चुके हैं, उसे छात्रों की कॉपियों की जांच जैसी संवेदनशील जिम्मेदारी सौंप देना किसी मजाक से कम नहीं। यह वही विश्वविद्यालय है, जो पहले भी ऐसी गड़बड़ियों के लिए बदनाम रहा है। दो साल पहले भी स्नातक परीक्षा में संबद्ध कॉलेजों के नाम पर अयोग्य शिक्षकों को परीक्षक बनाया गया था, जिसके खिलाफ शिक्षकों ने प्रदर्शन किया और तब जाकर उन शिक्षकों को मूल्यांकन से हटाया गया। लेकिन लगता है, बीआरएबीयू ने उस घटना से कोई सबक नहीं सीखा।
इस गड़बड़ी पर विश्वविद्यालय प्रशासन की चुप्पी हैरान करने वाली है। बीआरएबीयू के रजिस्ट्रार प्रो. संजय कुमार ने बयान दिया कि “इस मामले में कॉलेज और परीक्षा विभाग से पूरी जानकारी ली जाएगी।” लेकिन सवाल यह है कि जब विश्वविद्यालय सेवा आयोग का बर्खास्तगी पत्र पहले ही जारी हो चुका था, तो परीक्षा विभाग ने इतनी बड़ी चूक कैसे की? क्या विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में कोई तालमेल ही नहीं है? या फिर यह जानबूझकर की गई लापरवाही है, जिसमें कुछ और ‘खेल’ छिपा है?
विश्वविद्यालय के लोग इस गड़बड़ी को छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ बता रहे हैं, और यह बिल्कुल सही है। स्नातक थर्ड सेमेस्टर की कॉपियां जांचने का काम कोई मामूली जिम्मेदारी नहीं है। एक अयोग्य या बर्खास्त शिक्षक के हाथों कॉपियों का मूल्यांकन न केवल छात्रों के अंकों को प्रभावित कर सकता है, बल्कि उनकी डिग्री की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठा सकता है। बीआरएबीयू के पूर्व सिंडिकेट सदस्य डॉ. धनंजय सिंह ने इस मामले की पूरी तफ्तीश की मांग की है, और यह मांग जायज है। लेकिन क्या विश्वविद्यालय प्रशासन इसकी गंभीरता को समझेगा, या फिर यह मामला भी फाइलों में दबकर रह जाएगा?
बीआरएबीयू का यह कोई पहला ‘कारनामा’ नहीं है। दो साल पहले भी स्नातक परीक्षा में संबद्ध कॉलेजों के नाम पर गलत शिक्षकों को परीक्षक बनाया गया था। उस वक्त संबद्ध कॉलेजों के शिक्षकों ने विश्वविद्यालय में प्रदर्शन किया, जिसके बाद आनन-फानन में उन शिक्षकों को मूल्यांकन से हटाया गया। लेकिन उस घटना के बाद विश्वविद्यालय ने अपनी प्रक्रिया को सुधारने के लिए क्या कदम उठाए? जवाब है—शायद कुछ भी नहीं! यह ताजा मामला साबित करता है कि विश्वविद्यालय की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ है, और लापरवाही का आलम वही का वही है।
इस गड़बड़ी की जड़ में कई समस्याएं हैं। पहली, विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों में तालमेल का घोर अभाव। अगर सेवा आयोग ने शिक्षक को बर्खास्त किया, तो उसकी जानकारी परीक्षा विभाग तक क्यों नहीं पहुंची? दूसरी, नियुक्तियों और मूल्यांकन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी। क्या परीक्षकों की सूची तैयार करने से पहले उनके दस्तावेजों की जांच नहीं होती? तीसरी, जवाबदेही का अभाव। ऐसी गलतियां बार-बार होने के बावजूद कोई जिम्मेदार अधिकारी सवालों के घेरे में क्यों नहीं आता?
इसके अलावा, बिहार के शिक्षा तंत्र में भ्रष्टाचार और लापरवाही का लंबा इतिहास रहा है। निगरानी विभाग की हालिया रिपोर्ट में मुजफ्फरपुर के शिक्षकों पर भ्रष्टाचार के सैकड़ों मामले दर्ज होने की बात सामने आई थी। ऐसे माहौल में, जब विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं भी इस तरह की गड़बड़ियां करती हैं, तो यह शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता पर गहरा आघात करता है।
यह गड़बड़ी सिर्फ एक शिक्षक की नियुक्ति का मामला नहीं है; यह हजारों छात्रों के भविष्य और विश्वविद्यालय की साख का सवाल है। स्नातक थर्ड सेमेस्टर के छात्र, जो अपनी डिग्री के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, क्या इस बात के हकदार नहीं कि उनकी कॉपियां योग्य और ईमानदार शिक्षकों से जांच हो? एक बर्खास्त शिक्षक, जिसके पास फर्जी प्रमाणपत्र होने का आरोप है, क्या उनकी मेहनत का सही मूल्यांकन कर सकता है?
विश्वविद्यालय प्रशासन को इस मामले में तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। सबसे पहले, बर्खास्त शिक्षक को तत्काल मूल्यांकन प्रक्रिया से हटाया जाए। दूसरा, इस गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाए। तीसरा, भविष्य में ऐसी गलतियों को रोकने के लिए पारदर्शी और कड़ी प्रक्रिया लागू की जाए। डॉ. धनंजय सिंह की मांग के मुताबिक, इस मामले की पूरी जांच होनी चाहिए, और दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
बीआरए बिहार विश्वविद्यालय की यह गड़बड़ी कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह निश्चित रूप से चिंताजनक है। एक तरफ सरकार ‘शिक्षा सुधार’ और ‘डिजिटल युग’ की बात करती है, दूसरी तरफ विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं ऐसी लापरवाही करती हैं, जो छात्रों के भविष्य को खतरे में डाल देती हैं। यह घटना बिहार के शिक्षा तंत्र की उस सड़ांध को उजागर करती है, जो भ्रष्टाचार, लापरवाही, और जवाबदेही की कमी से भरी पड़ी है।
सवाल यह है कि क्या बीआरएबीयू इस मामले को गंभीरता से लेगा, या फिर यह भी पहले की तरह प्रदर्शन और प्रेस रिलीज तक सिमटकर रह जाएगा? अगर विश्वविद्यालय को अपनी साख बचानी है और छात्रों को उनका हक देना है, तो उसे सिर्फ बयानबाजी नहीं, बल्कि ठोस कार्रवाई करनी होगी। वरना, बिहार का शिक्षा तंत्र और उसका ‘गौरवशाली’ इतिहास यूं ही बदनामी की सुर्खियां बटोरता रहेगा। आखिर, यह बिहार है, जहां गड़बड़ियां न हों, ऐसा तो हो ही नहीं सकता! लेकिन कब तक?
रिपोर्ट- मणिभूषण शर्मा