Bihar Election 2025: जानें कौन है औरंगाबाद के लूटन बाबू! ईमानदारी और जनसेवा से गढ़ी एक मिसाल, महज 4 हजार में जीत लिया चुनाव

Bihar Election 2025: 1977 में औरंगाबाद की राजनीति में उभरे लूटन बाबू की कहानी, जिन्होंने सादगी और ईमानदारी से जनता का दिल जीता और निर्दलीय होकर भी जीत दर्ज की।

Bihar Election 2025
औरंगाबाद के लूटन बाबू- फोटो : social media

Bihar Election 2025: बिहार के राजनीतिक इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो पद या पार्टी से नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व और सादगी से जनता के दिलों में जगह बनाते हैं। रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबू उन्हीं में से एक थे।वर्ष था 1977, जब पूरे देश में आपातकाल के बाद जनता का गुस्सा चरम पर था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ माहौल था और बिहार की राजनीति भी करवटें ले रही थी। इसी दौर में औरंगाबाद की जमीन पर एक नया चेहरा उभरा लूटन बाबू,जो आगे चलकर सादगी और संघर्ष की पहचान बन गए।

आपातकाल के बाद औरंगाबाद की राजनीति में नई बयार

1977 में औरंगाबाद हाल ही में गया से अलग होकर जिला बना था। लोगों में उम्मीद भी थी और असंतोष भी।आपातकाल की यादें ताजा थीं, जनता पार्टी की नई लहर उठ चुकी थी। ऐसे में कांग्रेस के लिए माहौल आसान नहीं था।फिर भी, कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के रूप में रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबू पर भरोसा जताया। उनके समर्थकों ने एक नारा दिया कि नेता नहीं फकीर है, देश का तकदीर है। यह नारा सिर्फ चुनावी जुमला नहीं, बल्कि उस दौर के लोगों के मन की भावना बन गया।

जनता की सादगी से निकली जीत की कहानी

औरंगाबाद विधानसभा सीट से कुल 13 प्रत्याशियों ने नामांकन किया था।जनता पार्टी से बृजमोहन सिंह और कांग्रेस से लूटन बाबू आमने-सामने थे।मतदान 6 अक्टूबर 1977 को हुआ, जिसमें 45% से अधिक वोटिंग हुई।नतीजे आए तो पूरा औरंगाबाद चकित रह गया लूटन बाबू ने मात्र 1134 वोटों से जीत दर्ज की, लेकिन यह जीत उनके व्यक्तित्व की जीत थी।उनके नजदीकी रहे महेश्वर सिंह याद करते हैं लूटन बाबू ने महज चार-पांच हजार रुपये में चुनाव लड़ा और जीत गए। न सोशल मीडिया था, न पोस्टर-बैनर का दिखावा। बस जनता का विश्वास था। वह दौर ऐसा था जब जनता उम्मीदवार को पैसे से नहीं, काम से परखती थी।

1980 में निर्दलीय होकर दोबारा जीते चुनाव

1977 की जीत के तीन साल बाद जब 1980 में चुनाव हुए, कांग्रेस ने इस बार टिकट किसी और को दे दिया।पर लूटन बाबू पीछे नहीं हटे। उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने का फैसला किया।परिणाम वही रहा — जनता का प्यार पहले से भी ज्यादा मिला।उन्होंने 21,149 वोट पाकर अपने प्रतिद्वंदी सूरजदेव सिंह को 6,793 मतों से हरा दिया।लूटन बाबू की लोकप्रियता इस कदर बढ़ चुकी थी कि लोग उन्हें विधायक नहीं, जनता का मसीहा कहने लगे। हालांकि 1985 में वे बृजमोहन सिंह से हार गए, पर उनकी छवि एक सच्चे जननेता की बन चुकी थी।

जनता के सेवक, विकास के वाहक

लूटन बाबू का राजनीति में मकसद सत्ता नहीं, सेवा था।औरंगाबाद के लोगों के अनुसार, उन्होंने जनता से किए वादों को निभाने के लिए दिन-रात मेहनत की।उन्होंने इलाके में सड़क निर्माण, ट्रेन स्टॉपेज, यात्री सुविधा जैसे मुद्दों को उठाया और विकास की नई लकीर खींची।उनके बेटे सुनील कुमार सिंह के अनुसार ईमानदारी और स्वच्छ छवि बाबूजी की पहचान थी। वे हर दिन जनता का दरबार लगाते थे और समस्याओं का समाधान करते थे। उनकी सादगी और जनसंपर्क शैली ने उन्हें भीड़ से अलग पहचान दी।

लोकसभा तक का सफर जनता के भरोसे पर

लूटन बाबू का राजनीतिक सफर यहीं नहीं रुका।1989 और 1991 में वे औरंगाबाद से लोकसभा सांसद बने।उनकी पहचान एक ऐसे सांसद के रूप में हुई जो दिल्ली में भी जनता के लिए सुलभ थे।वह हर सप्ताह अपने क्षेत्र के लोगों से मुलाकात करते, और समस्याओं के समाधान के लिए मंत्रालयों के चक्कर लगाते।आज भी औरंगाबाद के लोग उन्हें याद करते हुए कहते हैं लूटन बाबू आज नहीं हैं, लेकिन उनकी नीयत, सादगी और विकास के इरादे अब भी ज़िंदा हैं।”