Bihar electoral violence: बिहार चुनावी हिंसा का इतिहास! 1965 से 2025 तक कैसे बदली राजनीति की तस्वीर, बूथ कैप्चरिंग से लेकर मर्डर तक का काला इतिहास
Bihar electoral violence: मोकामा में जन सुराज पार्टी के समर्थक की हत्या ने बिहार की चुनावी हिंसा के पुराने दौर की याद दिला दी। जानिए 1965 से अब तक बिहार में चुनावी हिंसा का इतिहास और उसका बदलता स्वरूप।
 
                            Bihar electoral violence: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के बीच मोकामा से आई गोलीबारी और जन सुराज समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या ने पूरे राज्य को झकझोर दिया है।जिस राज्य ने पिछले दो दशकों में शांतिपूर्ण चुनाव की पहचान बनाई थी, वहां अब फिर से गोलियों की गूंज सुनाई देने लगी है।इस घटना ने न सिर्फ कानून-व्यवस्था बल्कि चुनाव आयोग की तैयारी पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
नीतीश राज में थमी थी हिंसा की लहर
कभी बिहार चुनावी हिंसा, बूथ लूट और अपहरण के लिए बदनाम था।1980 और 1990 का दशक ऐसा था जब मतदान का मतलब डर और दहशत हुआ करता था,लेकिन 2005 में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद तस्वीर बदली सुरक्षा बलों की तैनाती, बूथों पर कैमरे और सख्त प्रशासन ने हिंसा पर लगाम लगाई। 2010 से अब तक लगभग सभी विधानसभा चुनाव शांति से संपन्न हुए थे।
बिहार की सियासत में हिंसा का इतिहास
राज्य की राजनीतिक जमीन खून से कई बार लाल हुई है।1960 के दशक से लेकर 1990 तक, बिहार में कई बड़े नेताओं की हत्या हुई।शक्ति कुमार, मंज़ूर हसन, अशोक सिंह और बृज बिहारी प्रसाद जैसे नाम आज भी बिहार की सियासी हिंसा की काली याद हैं।कई बार हत्या के बाद शव तक नहीं मिले और न्याय दशकों तक अधूरा रह गया।
बूथ कैप्चरिंग की शुरुआत यहीं से
भारत में बूथ कैप्चरिंग का पहला मामला भी बिहार से ही जुड़ा है।1957 में बेगूसराय जिले में यह शब्द पहली बार सुर्खियों में आया।उसके बाद हर चुनाव में कुछ न कुछ हिंसक घटनाएं होती रहीं।1977 से 1995 के बीच तो बिहार चुनावों में हत्या, धमकी और अपहरण आम बात थी।
आंकड़ों में बिहार की चुनावी हिंसा की कहानी
1977 में जहां 26 लोगों की जान गई थी, वहीं 1985 में यह संख्या बढ़कर 69 तक पहुँच गई। 1990 के चुनाव में 87 मौतें हुईं — जो बिहार की सबसे भयावह चुनावी हिंसा मानी जाती है।हालांकि, 2005 के बाद यह आँकड़े लगभग शून्य के करीब पहुंच गए थे।
अब फिर उठे सवाल — क्या लौट रही है पुरानी राजनीति?
मोकामा गोलीकांड ने उस दौर की याद ताज़ा कर दी है जब बाहुबल और राजनीति का गठजोड़ सत्ता की राह तय करता था। जन सुराज पार्टी के नेता दुलारचंद यादव की हत्या ने साफ संकेत दिया है कि ज़मीन पर तनाव और निजी रंजिशें अब भी जिंदा हैं।
 
                 
                 
                 
                 
                 
                                         
                                         
                             
                             
                     
                     
         
                     
                     
                     
                     
                    