Bihar Politics: बिहार की राजनीति में बढ़ता परिवारवाद! लोकतंत्र के लिए उभरता नया खतरा, जानें मौजूदा वक्त के 7 बाहुबलियों के बेटे
Bihar Politics: बिहार की राजनीति में परिवारवाद नया नहीं, लेकिन हाल के चुनावों में वंशवाद का खतरनाक रूप सामने आया है। बाहुबली परिवारों और शिक्षा के नाम पर वंशवाद का बढ़ना लोकतंत्र के लिए बड़ा संकट बनता दिख रहा है।
Bihar Politics: बिहार में परिवारवाद कोई अचानक उभरा विषय नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें इतिहास के पन्नों में गहरी दर्ज हैं। संपूर्ण क्रांति और समाजवादी आंदोलन के समय राजनीतिक परिवारवाद को लोकतंत्र विरोधी बताया गया था। जनसंघ से लेकर विभिन्न विपक्षी दलों ने जनता को यह विश्वास दिलाया कि परिवार केंद्रित राजनीति लोकहित के विरुद्ध है। समय बीतने के साथ राजनीतिक माहौल बदला और वे दल, जो कभी परिवारवाद के घोर विरोधी थे, अब उसी रास्ते पर खुद आगे बढ़ते नजर आ रहे हैं।
राज्य में कई दशक से ऐसे लगभग 21 राजनीतिक घराने सक्रिय हैं जिनके इर्द–गिर्द सत्ता का बड़ा हिस्सा घूमता है। लालू प्रसाद यादव के परिवार से लेकर रामविलास पासवान, जगन्नाथ मिश्रा, महावीर चौधरी, राजो सिंह और कई नए नाम इस सूची को लगातार लंबा बना रहे हैं। स्थिति इतनी बदल चुकी है कि अब भाजपा और जदयू तक ने परिवारवाद को लेकर अपनी पुरानी सोच को नरम कर दिया। आगामी विधानसभा चुनाव में हर दल ने राजनीतिक परिवारों से जुड़े उम्मीदवारों को टिकट दिया और उनमें से अधिकतर को जनता ने भी स्वीकार कर लिया। भाजपा और जदयू के लगभग सभी परिवार आधारित उम्मीदवार जीतकर आए, जबकि राजद को आंशिक सफलता मिली। यह दिखाता है कि बिहार की राजनीति में परिवारवाद अब आम जन–मानस का हिस्सा बनता जा रहा है। परंतु यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए चुनौती भी है, क्योंकि इससे कार्यकर्ता परंपरा, नेतृत्व की योग्यता और जनसंगर्ष आधारित राजनीति धीरे–धीरे कमजोर होती दिख रही है।
बाहुबली परिवारवाद
पहले परिवारवाद का मतलब सिर्फ इतना था कि किसी प्रभावशाली नेता के बेटे–बेटी या पत्नी–बहू को राजनीति में जगह मिल जाए। यह धीरे–धीरे सामान्य और स्वीकार्य बात बन गई। लेकिन हाल के वर्षों में परिवारवाद का एक अधिक चिंताजनक रूप सामने आया—बाहुबली परिवारों का वंशवाद। अब ऐसे नेताओं की अगली पीढ़ी राजनीति में उतर रही है, जिनका नाम पहले अपराध, दबदबे या विवादों से जुड़ा रहा है।
2025 के चुनाव ने यह नया चेहरा खुलकर दिखाया। सुनील पांडे के बेटे विशाल प्रशांत, शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब, मुन्ना शुक्ला की बेटी शिवानी, तस्लीमुद्दीन के बेटे शाहनवाज, राजबल्लभ यादव की पत्नी विभा देवी, आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद और भी कई नाम राजनीतिक मंच पर सामने आए। यह प्रवृत्ति इसलिए खतरनाक है क्योंकि इससे राजनीति में अपराधीकरण को अप्रत्यक्ष मान्यता मिलती है। विभिन्न जातीय समीकरणों और भावनात्मक जुड़ाव के कारण जनता भी ऐसे उम्मीदवारों को आसानी से स्वीकार कर लेती है, और यह स्थिति लोकतांत्रिक ढांचे को अस्वस्थ बनाती है।
शिक्षा के नाम पर नया परिवारवाद और लोकतंत्र का संकट
परिवारवाद का एक और नया आयाम हाल में उभरा है—शिक्षा के नाम पर परिवारवाद का बचाव। अब कुछ नेता अपने बच्चों को राजनीति में लाने के लिए यह तर्क देते हैं कि वे उच्च शिक्षित हैं या आधुनिक सोच रखते हैं। उपेंद्र कुशवाहा का उदाहरण सबसे चर्चित है, जिनके बेटे दीपक प्रकाश बिना विधायक बने ही मंत्री पद तक पहुंच गए। जब इस फैसले पर सवाल उठे तो कुशवाहा ने कहा कि उनका बेटा पढ़ा–लिखा है और राजनीति की समझ रखता है, इसलिए उसे यह जिम्मेदारी दी गई।