किसमें कितना है दम 14 नवंबर को होगा साफ..रेवड़ियां बांटने और देने के वादे ने किसे पहुंचाया फायदा..पढिये

किसमें कितना है दम 14 नवंबर को होगा साफ.. रेवड़ियां बांटने और देने के वादे ने किसे पहुंचाया फायदा...पढिये पूरी रिपोर्ट

किसमें कितना है दम 14 नवंबर को होगा साफ..रेवड़ियां बांटने और

पटना :बिहार विधानसभा चुनाव समाप्त हो चुका है. लोकतंत्र के मालिक ने अपना फैसला ईवीएम में सुरक्षित कैद कर दिया. 14 तारिख को नतीजे सामने होंगे कि अगले पांच साल के लिए बिहार की दशा और दिशा क्या होगी. चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों ने तमाम तरह के हथकंडे अपनाएं. मतदाताओं की संवेदना को कुरेदा गया. एक ने बहुत कुछ देने का वादा किया तो दूसरे ने बहुत कुछ बांट दिया. तीसरे ने लेने देने की इन रणनीति को ही चुनौती दी, आम जनों को समझाने लगे कि इस लेन देन की राजनीति ही तुम्हारे विकास का रास्ता बंद करता है. तीसरे की बातें तो सही थी! नीयत का कह नहीं सकता लेकिन नीति इनकी भी संदिग्ध दिखी. अलग तरह की राजनीति करने का दावा करने वाले जब राजनीति किये तो वही किये जो होती आ रही है. चुनाव नतीजे आने के पहले राजनीतिक पंडित कह रहे हैं कि जनता ने इन्हें (तीसरे विकल्प को) राजनीति से अलग करने का मन बना लिया है. लोगों के इस कथन में कितना दम है यह तो 14 नवंबर को साफ होगा. लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या बिहार के लोगों ने अपने हित में फैसला लिया है. आइए एक पड़ताल करते हैं.

विश्व को लोकतंत्र/गणतंत्र की नीति से अवगत कराने वाला बिहार आज बदहाली में खुशहाली खोजता है. आखिर क्यों बिहार के लोग अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए चिंता नहीं करते? यह एक बड़ा सवाल है. आखिर क्यूं   बिहार अपनी तुलना बीते हुए कल से ही करता है? अखिर क्यूं बिहार का पढ़ा लिखा जमात हो या साधारण जन मानस वो अपनी तुलना दिल्ली, बैंगुलुरू, पुणे, हैदराबाद, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश से अपने प्रेदश की तुलना नहीं करता ?. क्यूं बिहार की पत्रकारिता इस बात पर चिंता नहीं करती कि देश के औसत प्रति व्यक्ति आय की तुलना में बिहार में प्रतिव्यक्ति आय 20 गुणा कम है? आखिर क्यूं बिहार में चुनाव पलायण, उद्योग, रोजगार के मुद्दे पर शुरू होती है और जाति के नाम पर समाप्त होती है? आखिर क्यों रोजगार और रोटी के लिए मीलों की दूरी तय करने वाला बिहार फ्री की रेवड़ी पर लहालोट हो जाता है?  आखिर क्यों बिहार का मतदाता सरकारी नौकरी की सब्जबाग को ही विकास का पहला और अंतिम पायदान मान लेता है.

बिहार हर कालखंड में क्रांति का अग्रदूत रहा है. याद कीजिए सिकंदर की सेना को, धनानंद की ताकत की आहट ही उसे झेलम से आगे बढ़ने से रोक दिया. जब यवन भारत के अंदर तक घुसने लगे तो ये मगध सम्राट पुष्यमित्र शुंग की ताकत ही थी उसे भारत की भूमि से खदेड़ा. इस्लामिक शासन काल के दौरान बिहार की ही कुछ भूमि थी जहां शेरशाह के साथ मुगलों को भी कर वसूली से मुक्त रहना पड़ा था. अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए शंखनाद गांधी जी के नेतृत्व मे बिहार से ही हुई थी. और तो और आजाद भारत में लोकतंत्र की मजबूती के लिए जो आंदोलन हुआ जिसे जेपी आंदोलन कहते हैं इसकी जमीन भी बिहार की थी और इसके अधिकांश नेता भी बिहार से ही थे.

देश जब जमींदारी और जाति प्रथा की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तब बिहार ही वो पहला राज्य था जहां इन गुलामी के संकेतों को सबसे पहले धवस्त किया गया. चाहे मंदिर में दलितों के प्रवेश कराना हो या खेतिहर किसानों के लिए जमींदार के जुल्म से मुक्ति का मसला हो, या बेघर गरिबों के लिए घर देने का मसला हो. आधुनिक बिहार इन तमाम सामाजिक जकड़न पर सबसे पहले और प्रचंड प्रहार करना हो. बिहार अग्रदूत रहा. ऐसे में लाख टके का सवाल है कि डॉ श्रीकृष्ण सिंह का बिहार, कर्पूरी ठाकुर का बिहार, जेपी का बिहार, आज अपनी तरक्की के लिए मौलिक मुद्दो को क्यूं नहीं उठाता? आखिर क्यूं बिहार सामाजिक न्याय को ही तवज्जो देता है. पलायन का दर्द भी है, बेरोजगारी की समस्या भी है, लेकिन मतदान संवेदनशील मुद्दो पर ही होगा. जिम्मेदार कौन ? वो राजनेता जो रोजी रोटी की समस्या ना हल कर पाने की स्थिति में इमोशनल मुद्दो को हवा देता है या जिम्मेदार बिहार की जनता है जो अपनी मौलिक समस्या को छोड़ जो प्राप्त है वो पर्याप्त है को अंतिम सच मान नेता के बहकावे में आ जाता है.