'रउवा लोगन बदलाव चाहs त हमनी के साथ चलs...' हिंदी नहीं बिहारी भाषाएं बोलकर दिल में उतर रहे पीके, लोक से जुड़ता जनसुराज का सियासी हथियार
बिहार की धरती से जुड़ाव की रणनीति के लिए जनसुराज के प्रशांत किशोर भाषा को एक हथियार के रूप में पेश कर रहे जो उन्हें लोक का नेता बनाने का संदेश दे रहा है.

Prashant Kishore: बिहार को लेकर एक कहावत है कि 'कोस-कोस पर पानी बदले चार कोस पर वाणी'. भोजपुरी, मगही, मैथिलि, बज्जिका, अंगिका, तिरहुता, सुरजापुरी, संथाली, कुरमाली जैसी असंख्य भाषाएं बिहार के अलग अलग हिस्सों में बोली जाती हैं. हालांकि आम तौर पर बिहार में संवाद का सबसे सशक्त माध्यम हिंदी भाषा ही है. मौजूदा दौर के अधिकांश नेता सार्वजनिक सभाओं में अपने सम्बोधन के लिए हिंदी ही उपयोग करते हैं. ऐसे में भाषाओं के गुलदस्ते वाले बिहार में यहां की स्थानीय भाषाओं को कम ही तव्वजो मिल पाती है. लेकिन बिहार में नई सियासत के सपने को साकार करने उतरे जनसुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर अब भाषा के रूप में भी नए सियासी संकेत दे रहे हैं. वे हिंदी की जगह बिहारी भाषाएं बोलकर लोगों के दिल में उतरने की नई कोशिश में लगे हैं.
पीके के साथ पिछले कुछ सप्ताह में 20 से ज्यादा कार्यक्रमों को कवर करते हुए मैंने यह नजदीक से देखा है कि वे हिंदी के बदले भोजपुरी जैसी भाषाओं से जनजुड़ाव स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. यानी आम लोगों से आम लोगों की भाषा में बात कर उनकी सबसे बड़ी समस्याओं पर चर्चा करना. प्रशांत किशोर भले ही एक ग्लोबल सोच वाले रणनीतिकार रहे हों, लेकिन बिहार की जमीनी हकीकत को वे भलीभाँति समझते हैं. बिहार में विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोली जाती हैं – मगही, मैथिली, अंगिका और खासकर भोजपुरी। भोजपुरी न केवल बिहार की बड़ी आबादी की भाषा है, बल्कि इसकी सांस्कृतिक पहचान भी है. जब पीके जनता को भोजपुरी में संबोधित करते हुए कहते हैं - "रउवा लोग बदलाव चाहs त हमनी के साथ चलs..." तो यह सिर्फ एक संवाद नहीं, बल्कि लोगों के हृदय को छूने वाला संदेश बन जाता है..
भीड़ में अलग नेता बने पीके
शाहाबाद हो या मिथिला के इलाके अथवा मगध पीके की सभाओं में आने वाले लोगों से जब हमने यह जानना चाहा कि क्या सम्बोधन के लिए भोजपुरी जैसी भाषा बोलना पीके को सबसे अलग बनाता है तो अमूमन जवाब यही आया कि बिहार की जनता लंबे समय से यह महसूस करती रही है कि राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजनीति में स्थानीय भाषाओं को हाशिए पर रखा गया है. पीके का भोजपुरी में बोलना न केवल उन्हें ‘अपना’ बनाता है, बल्कि एक सांस्कृतिक स्वाभिमान को भी छूता है. भोजपुरी में संवाद करते हुए पीके यह संकेत देते हैं कि वे ‘बाहरी रणनीतिकार’ नहीं, बल्कि "अपने गाँव के बेटा" हैं, जो बदलाव की बात कर रहे हैं. मैथिलि की तरह संविधान की आठवीं अनुसूची में भोजपुरी जैसी भाषाओँ को शामिल करने के लिए इसे सार्वजनिक संवाद में लाना भी लोग जरूरी मानते हैं जो पीके कर रहे हैं. पीके की यह शैली उन्हें "भीड़ में अलग दिखने वाला नेता" बना रही है.
'जो लोक से जुड़ेगा, वही टिकेगा'
सियासत में 'जो लोक से जुड़ेगा, वही टिकेगा' के सिद्धांत को अपनाते हुए पीके अपनी जनसभाओं में कुछ ऐसे सवाल भी छोड़ रहे हैं जो सीधे लोगों की जरूरतों से जुड़ा होता है. जैसे जब पीके कहते हैं कि आपने बिहार में बिजली के लिए वोट दिया तो आपके यहां बिजली आई, जब मंदिर के लिए वोट दिया तो राम मंदिर बना, जब जाति के लिए वोट दिया तो जातिगणना हुई. इसी तरह जब नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिया तो गुजरात के गांव गांव में फैक्टरी लगी. वे मोदी, नीतीश और लालू पर तंज कसते हैं कि कैसे कोई 56 इंच के सीने की बात कर खुद सत्ता में आ गए और आपके बेटे का सीना सिकुड़कर 15 इंच का हो गया. लालू का नौवीं फेल बेटा अब सीएम बनने का सपना देख रहा है तो आपका बेटा पलायन कर दूसरे राज्य में मजदूर बना है. इसलिए पीके अपनी सभाओं में लोगों से कहते हैं कि जब लालू अपने बेटे की चिंता कर सकते हैं तो आप क्यों नहीं अपने बेटे की शिक्षा, नौकरी, रोजगार की चिंता करते हैं? इसलिए इस बार वोट इन मुद्दों पर दें तो जनसुराज नया सुराज लाएगा.
खाई को पाट रहे पीके
पारंपरिक दलों के नेता अब भी औपचारिक हिंदी या भाषण शैली तक सीमित हैं. वहीं पीके इस खाई को पाटने की कोशिश कर रहे हैं. भाषा के माध्यम से जनमानस से भावनात्मक जुड़ाव और एक स्थानीय नेतृत्व का चेहरा गढ़ना पीके की रणनीति का हिस्सा बना है. सम्राट चौधरी, तेजस्वी यादव, चिराग पासवान, संतोष सुमन, पुष्पम प्रिया, निशांत जैसे अपने समकक्ष नेताओं के मुकाबले पीके का भाषाई हथियार उन्हें भीड़ में अलग नेता के रूप में पेश कर रहा है.
पीके की सभाओं को कवर रहे नरोत्तम की रिपोर्ट