Prashant Kishore : 'चौबे चले छब्बे बनने, दुबे बनके लौटे' . बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में प्रशांत किशोर पर यही बातें चरितार्थ होती हैं. सियासत करने वालों को शिक्षित, शुचितावादी और सिद्धांतपरक होने की बातें करने वाले पीके ने बिहार में चार सीटों के विधानसभा उपचुनाव में जनसुराज से जिन लोगों को उम्मीदवार बनाया वे सीधे इससे विपरीत रहे. जाति-धर्म के राजनीति नहीं करने की बातें करने के बाद भी उम्मीदवारों के चयन में पीके इन्हीं समीकरण के आसपास रहे. कार्यकर्ताओं को नेता बनाने की बात की लेकिन टिकट देने की बारी आई तो पहले से सियासी मैदान में मौजूद चेहरों पर ही भरोसा जताया. यानी सिद्धांत गया ‘भांड’ में और बाकि दलों की तरह सियासी व्यवहार को अपना आधार बनाकर राजनीतिक व्यवहार में पिल पड़े. यानी अपनी हर बात से पीके मुकरकर उसका उल्टा करते रहे. तो ऐसे में जनता ने भी पीके को उसी भाषा में समझा दिया. चुनाव में चार में से तीन सीटों पर जनसुराज की जमानत जब्त हो गई.
जनसुराज को मिले वोट पीके के या किसी और के
जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर के चारों उम्मीदवारों को कुल 66 हजार 523 वोट आए. इसमें सबसे ज्यादा इमामगंज के प्रत्याशी जितेन्द्र पासवान को 37 हजार 103 वोट मिले हैं. वहीं बेलागंज में मोहम्मद अमजद को 17 हजार 285 वोट मिले. रामगढ़ में सुशील कुशवाहा को मात्र 6513 जबकि तरारी में किरण सिंह को सिर्फ 5622 वोट मिले हैं. पीके के इन चारों उम्मदीवारों में तीन पहले से राजनीति में सक्रिय रहे हैं. देखा जाए तो जन सुराज के उम्मीदवार के रूप में इन्हें जितना वोट मिला उसके पीछे वोटरों पर इनकी व्यक्तिगत पकड़ महत्वपूर्ण रही. आंकड़े बताते हैं कि जन सुराज का टिकट हासिल कर इन्हें कोई विशेष फायदा नहीं मिला.
बेलागंज में अमजद का अपना आधार
दरअसल, मोहम्मद अमजद तो विधानसभा चुनाव में जीत से एक कदम पीछे रह गये थे. 2010 के विधानसभा चुनाव में बेलागंज से जदयू उम्मीदवार के रूप में मोहम्मद अमजद को 48441 वोट मिला और दूसरे स्थान पर रहे. उसके पहले वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव में भी मोहम्मद अमजद ने 27125 वोट लाकर दुसरा स्थान हासिल किया था जबकि फरवरी 2005 में हुए चुनाव में भी 35911 वोट लाकर वे दूसरे स्थान पर रहे थे. बेलागंज में मजबूत सियासी पकड़ रखने वाले मोहम्मद अमजद को इस बार जन सुराज ने टिकट दिया तो फिर से वे 17 हजार 285 वोट लाने में सफल रहे. ऐसे में पुराने आंकड़े से तुलना करें तो यह साफ होता है कि जन सुराज में आने का कोई फायदा मोहम्मद अमजद को नहीं मिला.
रामगढ़ में भी बुरी तरह रगड़ाए
रामगढ़ में जन सुराज के सुशील कुशवाहा पहले बसपा में थे. वे लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर बक्सर से चुनाव लड़े और 80 हजार वोट लाकर तीसरे पायदान पर रहे थे. इस बार जन सुराज से लड़े तो मात्र 6513 वोट मिला. यह दिखाता है कि उन्हें भी जन सुराज में आने का कोई फायदा नहीं हुआ.
पासवान-पासवान भाई-भाई
इमामगंज में जितेन्द्र पासवान को 37 हजार 103 वोट मिले. वे 2020 में आरएलएसपी उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में उतरे थे और चौथे नम्बर पर रहे थे. इमामगंज में स्वास्थ्य सेवा में काम करते हुए उन्होंने अपनी जोरदार लोकप्रियता हासिल की. साथ ही पासवान जाति से आने के कारण शुरू से ही इस विधानसभा क्षेत्र में मुसहर बनाम पासवान की सियासी लड़ाई होते रही है. उस पर नीम पर चढ़ा करेला वाली स्थिति हो गई. चिराग पासवान और जीतन राम मांझी के बीच की तल्खी का असर यहाँ भी दिखा. चिराग चुनाव प्रचार करने भी इमामगंज नहीं गये. माना गया कि उनके वोटर पासवान –पासवान वाले खेल में शामिल हो गये. इसका बड़ा फायदा जितेन्द्र को मिला और पासवान को अपने पक्ष में गोलबंद करने में उन्हें सफलता मिली.
पीके के हाथ कुछ नहीं आया
वहीं तरारी में किरण सिंह को सिर्फ 5622 वोट मिले. वोटों को जन सुराज की ओर आकर्षित करने में पूरी तरह से पीके तरारी में फेल हुए. ऐसे में पीके भले ही दावा करें कि उनके दल को बड़े स्तर पर जमीनी समर्थन मिल रहा है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि जनता ने जन सुराज को नकार दिया है. पेशेवर चुनावी रणनीतिकार से राजनीति का रास्ता का अख्तियार करने वाले पीके को अभी और मेहनत करने की जरूरत है. साथ ही सिद्धांत की बात सिर्फ सियासत के लिए नहीं बल्कि उसे व्यवहार में भी दिखानी होगी. तभी जाकर 2025 के विधानसभा चुनाव में बात बन सकती है.