Ram Darbar Ayodhya: अयोध्या में साकार हुआ राम दरबार,एक राजा, पति, भाई और पुत्र के रूप में श्री राम की भूमिका अद्भुत,अविश्वनीय और अकल्पनीय...
Ram Darbar Ayodhya: अयोध्या में प्रभु श्रीराम का दिव्य दरबार साकार हो गया है. जिसके दर्शन मात्र से सभी तरह का सांसारिक संताप एक क्षण में छू मंतर हो जाता है....जानिए क्या है राम दरबार की महिमा और उसकी अहमियत....कौशलेंद्र प्रियदर्शी की ख़ास रिपोर्ट

Ram Darbar Ayodhya:राम दरबार ,जिसके दर्शन मात्र से सांसारिक संताप छू मंतर हो जाता है, जिसकी कल्पना से मानवीय काया में अध्यात्मिक सिहरन का ज्वारभाटा हिलोरे मारने लगता हो, जिसकी सोंच जब साकार हो उठती है तब संसार से दैहिक, दैविक और भौतिक- तीनों तापों का शमन हो जाता है, जो हमारे सनातन संस्कृति का सबसे उद्दात ध्वजा वाहक हैं। एक ऐसा प्रतीक जो संसार में हजारों साल पहले से रामराज के रोमांच को पल्लवित और पुष्पित करता रहा है। आज वहीं राम दरबार की कल्पना अयोध्या धाम के राम मंदिर में राम लला के स्थापना के एक साल बाद साकार हुई है।
आज अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर आकार लेने की कगार पर है—यह केवल ईंट और पत्थरों से निर्मित एक ढाँचा नहीं, बल्कि यह करोड़ों भारतीयों की आस्था, श्रद्धा और गौरव के उन अदृश्य सूत्रों से बुना गया है, जो उनके हृदय में सदियों से पल रहे थे। जिस स्थान पर वर्षों तक प्रतीक्षा, संघर्ष, अनगिनत बलिदानों और अभूतपूर्व जन-आंदोलनों की आहुति दी गई, अब वहाँ निर्माण की घंटियाँ गूंज रही हैं, भक्ति के स्वर मुखरित हो रहे हैं। अयोध्या का यह नवोदय केवल स्थापत्य की दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक जीवंत प्रतीक के रूप में उभर गया है। यह केवल एक मंदिर नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के आत्मसम्मान और सांस्कृतिक पहचान की पुनःस्थापना है। हजारों वर्ष के इंतजार के बाद अयोध्या धाम में राम दरबार साकार हो उठा है। श्रीराम दरबार जिस संगमरमर से निर्मित हुआ है, वह न केवल युगों तक टिकाऊ और दृढ़ है, बल्कि उसकी दीप्ति और दिव्यता आने वाली पीढ़ियों को भी चमत्कृत करेगी। मूर्तिकार सत्य नारायण पांडेय और उनके जैसे अनगिनत शिल्पियों की साधना, समर्पण और निस्वार्थ भाव इस बात का प्रमाण है कि यह निर्माण केवल तकनीकी कौशल का प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मिक स्तर पर भी पवित्र और दैवीय है। वह पत्थर, जो चालीस वर्षों से इस पवित्र कार्य की प्रतीक्षा कर रहा था, अब देवत्व का रूप ले चुका है, हम लोग तो इंसान हैं, खुद को इसका साक्षी मान कर सौभाग्यशाली मान इतरा रहे हैं । जरा सोचिए मंदिर में लगे पाषाण भी खुद को सजीव मान धन्य हो उठे हैं।
राम दरबार के बहाने रामराज्य की कल्पना आज के डिजिटल युग में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी त्रेतायुग में थी—एक ऐसी व्यवस्था जहाँ तकनीक का उपयोग नैतिकता के साथ हो, विकास के साथ मानवीय मूल्यों की रक्षा हो, और आर्थिक उन्नति के साथ हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण हो। जहाँ हर व्यक्ति को अपनी प्रतिभा को निखारने का अवसर मिले, जहां हर रिश्ता प्रेम, समर्पण और संवेदनशीलता के गहरे रंग में हिलोरे मार रहा हों और जहां कोई भी अभावग्रस्त न रहे।
बहरहाल राम केवल एक व्यक्ति नहीं हैं, वे एक अमर विचार हैं—धर्म का, न्याय का, करुणा का, और त्याग का। अयोध्या धाम केवल एक नगर नहीं है, यह एक जीवंत चेतना है—भारत के आत्मतत्त्व की शाश्वत अभिव्यक्ति। राम दरबार यानी रामराज्य केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि वह चिरंतन स्वप्न है, जिसे प्रत्येक जागरूक और संवेदनशील नागरिक अपने हृदय में पालता है—एक ऐसे आदर्श समाज की परिकल्पना जहाँ सुख, शांति और समृद्धि का वास हो।
आज जब रामलला और राम दरबार अपने नव-निर्मित और भव्य मंदिर में पुनः प्रतिष्ठित हो गए हैं, तब केवल यह पत्थरों की दीवारें नहीं उठ रही हैं, बल्कि करोड़ों जनमानस में रामराज्य की आकांक्षा फिर से अंकुरित हो रही है, एक नई आशा का संचार हो रहा है। अयोध्या धाम का यह नवयुग केवल धार्मिक पुनरुत्थान का प्रतीक नहीं है, यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक है—एक ऐसा समय, जब भारत अपनी जड़ों से जुड़कर भविष्य की ओर देख रहा है। यही है वह पवित्र भूमि, जहाँ से रामराज्य की नई चेतना प्रस्फुटित होगी—एक ऐसा भारत जो समरस हो, समृद्ध हो, संकल्पित हो और विश्व का पथप्रदर्शक बन सके। यह केवल एक मंदिर नहीं, यह एक नए युग की आधारशिला है।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
अयोध्या धाम में राम दरबार —यह मात्र एक भौगोलिक स्थल नहीं, यह मात्र कुछ ईंट-पत्थरों से बनी भूमि का टुकड़ा नहीं, बल्कि यह सनातन संस्कृति की आत्मा है, भारतवर्ष के हृदय का स्पंदन है। यह वह पुण्यभूमि है, जहाँ युगों-युगों से धर्म, मर्यादा और न्याय की त्रयी ने अपने श्रेष्ठतम और शुद्धतम रूप में मूर्त रूप धारण किया। यह वह पावन धरा है, जहाँ भगवान राम ने न केवल एक कुशल राजा के रूप में राजधर्म का पालन किया, बल्कि एक आदर्श पुत्र, एक आदर्श पति, एक आदर्श भाई, और सर्वोपरि एक मर्यादा पुरुषोत्तम तथा धर्मनिष्ठ शासक के रूप में मानवता को रामराज्य के अलौकिक मार्ग का दिग्दर्शन कराया। अयोध्या में श्रीराम का शासनकाल केवल सत्ता, प्रभुत्व और वैभव का परिचायक नहीं था, बल्कि यह संवेदना, करुणा, लोक-कल्याणकारी नीतियों और लोकमंगल की सर्वोच्च पराकाष्ठा था, जिसकी तुलना संसार के किसी भी शासन से नहीं की जा सकती।
जब हम "रामराज्य" का स्मरण करते हैं, तो खुद-ब- खुद राम दरबार साकार हो उठता है। इसके बाद हमारे समक्ष केवल एक धार्मिक अवधारणा या एक पौराणिक कथा नहीं आती, बल्कि एक समृद्ध, संतुलित और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की कल्पना साकार हो उठती है—एक ऐसी शासन प्रणाली, जहाँ राजा का परम हित और कल्याण उसकी प्रजा में निहित होता है, और प्रजा अपने राजा को अपना पिता समान मानती है, जिस पर उन्हें पूर्ण विश्वास और स्नेह होता है। वाल्मीकि रामायण के आदि कवि बाल्मिकी और तुलसीदासकृत रामचरितमानस के महाकवि, जब रामराज्य का वर्णन करते हैं, तो उनकी कलम श्रद्धा, विस्मय और भक्तिभाव से झुक जाती है। "दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, रामराज नहिं काहुहि ब्यापा"—यह केवल दोहा नहीं, बल्कि उस आदर्श राज्य की अमर घोषणा है, जहाँ कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के दुख, कष्ट या क्लेश से पीड़ित नहीं था। यह एक ऐसा राज्य था जहाँ सभी वर्ग, सभी जातियाँ, सभी लिंग—समान रूप से सुखी, संतुष्ट, संतुलित और संरक्षित थे। यहाँ वर्ण-भेद का कोई स्थान नहीं था, सभी को समान दृष्टि से देखा जाता था।
रामराज्य का मूलाधार धर्म था, परंतु वह धर्म किसी विशेष वर्ग, संप्रदाय या विचारधारा के लिए संकीर्ण नहीं था। यह सार्वभौमिक, सर्वसमावेशी और लोकहितकारी था, जो संपूर्ण सृष्टि के कल्याण की भावना से ओत-प्रोत था। रामराज्य में कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं सोता था, किसी भी नागरिक पर अन्याय का साया नहीं पड़ता था, और न ही कोई नारी स्वयं को असुरक्षित महसूस करती थी। यह एक ऐसी सामाजिक संरचना थी, जिसमें परस्पर विश्वास, आत्मीयता, सहयोग और भाईचारे की भावना सर्वोपरि थी। राजा राम ने अपने व्यक्तिगत पीड़ा और पारिवारिक क्षति को भी राष्ट्रधर्म के आगे तुच्छ माना। उन्होंने राज्य की मर्यादा, प्रजा के हित और अपने कुल की कीर्ति के लिए अपनी आदर्श पत्नी सीता का परित्याग किया—निज के सुख को मिटाकर, लोकहित को सर्वोपरि प्राथमिकता दी। इस त्याग में वे ईश्वर से भी अधिक मानव प्रतीत होते हैं, और इसी मानवोचितता में उनकी दिव्यता, उनकी अलौकिकता और उनकी महानता निहित है। उनका त्याग एक ऐसा आदर्श स्थापित करता है, जहाँ शासक स्वयं को प्रजा का सेवक मानता है।
अयोध्या धाम : शाश्वत संस्कृति की धुरी
अयोध्या का शाब्दिक अर्थ ही है – "जहाँ युद्ध न हो"; 'अ' अर्थात नहीं, और 'युद्ध' अर्थात संग्राम। यह नगर चिरकाल से शांति, समरसता और अध्यात्म का प्रतीक रहा है। यहाँ की मिट्टी में एक अद्भुत माधुर्य और पावनता है, जो केवल धर्म की पावन महक ही नहीं, बल्कि संस्कृति, कला, साहित्य और लोक आस्था की सुगंध भी समेटे हुए है। इसी पवित्र धरती पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपना बाल्यकाल व्यतीत किया, बाल-लीलाएँ कीं, ज्ञान की साधना की, गुरुओं से दीक्षा ली और वनवास की कटु तपस्या के बाद विजय का वरण कर पुनः लौटे। अयोध्या की हर कण में राम के जीवन का सार समाहित है। स्वयं प्रभु कहते हैं-अवधपुरी मम पुरी सुहावनि।उत्तर दिशा बह सरयू पावनि। आइए, अयोध्या धाम में राम दरबार का दर्शन कर सांसारिक संतापों से मुक्त होने की छटपटाहट को विराम दीजिए।
कौशलेंद्र प्रियदर्शी की कलम से....