Kavita: कागज मेरा आईना है... दर्द, प्रेम और मौन सब उसमें उतरते हैं"
Kavita: यह कविता आत्मा की गहराइयों से उपजी एक लेखिका की अभिव्यक्ति है, जो लिखकर अपने दर्द, प्रेम, खालीपन और भावनाओं को कागज में ढालती है। लेखन उसके लिए संवाद, संबल और आत्मशांति का माध्यम है, जिससे उसकी मौन को आवाज मिलती है।

क्यों लिखती हो?
क्यों लिखती हो?
उसने पूछा _
क्यों लिखती हो?
मैंने कहा,
लिखने के शिवा, कुछ आता नहीं है मुझे।
लिखती हूं, तो थोड़ा पढ़ भी लेती हूं,
थोड़ा बतिया भी लेती हूं, थोड़ा सुस्ता भी लेती हूं,
फिर थोड़ा गुनगुनाती हूं -
और फिर लिखती हूं।
वह हंसकर बोला कहीं पागल तो नहीं हो?
पुण; पूछा उसने -
किसे लिखती हो?
थोड़ा देर सोचा मैंने,
और कहा -
थोड़ा तुमको, थोड़ा खुद को,
थोड़ी शिकायतें, थोड़ा प्यार,
कभी अपनी मन की बातें,
कभी खालीपन और सुनापन को,
बादलों को, नदियों को,
रेत और समंदर को,
फूलों को, भंवरों को,
मन में उठे झंझावातों को,
भावनाओं के उफानों को-
अनकहे विगलित स्वरों को,
अनकहे सबकुछ,
कागज़ों में ही तो दफ़न कर देती हूं।
लिखती हूं....
क्योंकि लिखने से व्यथा थोड़ी कम हो जाती है,
घुटन थोड़ी देर के लिए खत्म हो जाती है,
हां इसलिए मैं लिखती हूं.....।
(कवयित्री मंजु कुमारी एक संवेदनशील और अनुभवी साहित्यकार हैं, जिनका जीवन शिक्षक रूपी अनुशासन और रचनात्मकता का अद्भुत संगम रहा है। अवकाशप्राप्त शिक्षिका होने के साथ-साथ इन्होंने समाज, प्रकृति और आत्मा के सूक्ष्मतम भावों को बड़ी ही सहजता से अपनी कविताओं में पिरोया है। छायावादी सौंदर्यबोध की छाया में रची गई उनकी रचनाएं केवल भावों की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार हैं। वे शब्दों में वेदना, प्रेम, एकांत और संघर्ष को इस प्रकार गूंथती हैं कि पाठक मन भीग उठता है। मंजु कुमारी की लेखनी सचमुच साहित्यिक चेतना की एक सजीव धारा है।)