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सियासी अटरिया पर आजा रे संवारिया, साहेब जी ओढ़ लो पॉलिटिकल चुनरिया, इस खेल के फायदे में जनता कहां खड़ी.. जानिए पूरा सच

सियासी अटरिया पर आजा रे संवारिया, साहेब जी ओढ़ लो पॉलिटिकल चुनरिया, इस खेल के फायदे में जनता कहां खड़ी.. जानिए पूरा सच

पटना. सबसे पहले दिनकर की इन पंक्तियों से रु-ब-रु होते हैं फिर इस खबर की खबर ली जाएगी.राजनीति में मित्र कठिन है, स्व से उठा चरित्र कठिन है, और जुआरी के अड्डे पर वातावरण पवित्र कठिन है. कविता के कोख से निकला सियासत का यह सच यह साफ कर रहा है कि नेता किसी का नहीं होता. हालांकि बहुत सारे अपवाद हिंदुस्तान की राजनीति में भरे पड़े हैं. लेकिन, एक अवधारणा बन चुकी है कि सियासत के खेल में राजनेता किसी के सगे नहीं होते हैं. 

ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीति अपने पैदाइश से ही बेवफा का तमगा लेकर पैदा हुई है. उपभोक्तावादी संस्कृति में सियासत के संस्कार और बदले हैं. सियासत में अपरोक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से नेता सिर्फ सत्ता के लिए स्वांग भरा व्यवहार करता है. माना जाए तो स्वार्थ लोलुपता ही सबसे बड़ी सियासी सफलता है. बिहार में इन दिनों इसी किस्म का सियासी बयार बह रही है जिसमें सेवानिवृत प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों का राजनीति दलों का दामन थामने का सिलसिला तेज हो गया है. हाल के समय में जिन कुछ प्रमुख चेहरों ने सियासी अटरिया पर देखा देखी करने का बड़ा काम किया है उसमें पूर्व आईपीएस करुणा सागर ने राजद तो करीब एक दर्जन से ज्यादा अधिकारियों ने प्रशांत किशोर की पार्टी का दामन थामा. वहीं अब पूर्व केंद्रीय मंत्री और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे आरसीपी सिंह ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है. 

सियासी अटरिया पर आकर पॉलिटिकल चुनरिया ओढने वाले पूर्व नौकरशाहों के राजनीति में आने से जनता को कितना फायदा होता है यही सबसे अहम सवाल है. नौकरशाहों का सियासत में आने का एंट्री पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय से जो शुरू हुई वह अनवरत है. सियासत के इस खेल में फायदा किसे होगा यह तो वक्त बताएगा. नौकरशाहों का राजनीतिक में आने का दस्तूर पुराना है. अगर हम इतिहास देखें तो कई लोगों ने नौकरशाही का दशकों का सुख भोगने के बाद सेवानिवृत होने पर राजनीतिक पारी शुरू की. इनमे ज्यादातर ऐसे चेहरे रहे जो अपने नौकरी के सेवाकाल के दौरान अपने गांव समाज से दूर-दूर ही रहे. लेकिन सेवानिवृति के बाद जनसेवा की वही बातें दोहराने लगे जो राजनेताओं का मूल शक्ल होता है. 

नौकरशाह से राजनेता बने लोगों को पार्टियों ने सिर्फ लोकलुभावन चेहरों के तौर पर पेश किया. कुछ राजनीतिक दल नौकरशाहों के बहाने अपनी पार्टी की छवि बदलने की कोशिश करते हैं. कुछ इन नौकरशाहों की जाति और धर्म से फायदा लेना चाहते हैं. वहीं नौकरशाह भी सेवानिवृत होने बाद एक सुरक्षित ठिकाने के तौर पर राजनीति को सबसे मुफीद मानते हैं. इन लोगों को यह पनाहगाह इसलिए और आकर्षित करता है क्योंकि पढने लिखने के बाद शीर्ष पद संभालते हुए पॉलिटिकल पवार का अहसास हमेशा होते रहता है. इसी में कुछ लोग जो महत्वाकांक्षी होते हैं वे बरबस सियासी मगजमारी के लिए तैयार हो जाते हैं. हालांकि परिणाम देखने पर ऐसा लगता है कि इनमे से ज्यादा राजनीति के खेल में फिसड्डी साबित हुए हैं. 

यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या ये नौकरशाह जननेता होते हैं. या फिर अपने सेवाकाल के दौरान उन्होंने कुछ ऐसा किए जिससे उनके क्षेत्र, जाति, धर्म या गांव के लोग किसी प्रकार से प्रेरित अथवा लाभांवित हुए हों. दरअसल, ज्यादातर नौकरशाहों का अपने गांव-समाज में जनजुड़ाव सेवाकाल के दौरान बेहद सीमित होता है. ऐसे में अचानक से राजनीतिक एंट्री मारकर समाज सुधार की पींगे पढ़ने वाले नौकरशाहों से जनता यह हिसाब भी करती है कि आपने सेवाकाल में जनसेवा क्यों नहीं की. यही वजह है कि बिहार सहित राष्ट्रीय स्तर पर कई नौकरशाहों ने जब रजनीतिक एंट्री ली तो उनमे से ज्यादातर को जनता ने नकार दिया. 

अफसरशाही से बिहार की राजनीति में आने वाले अफसरों की फेहरिस्त लंबी है. मीरा कुमार, यशवंत सिन्हा, गुप्तेश्वर पांडेय, आरसीपी सिंह, आरके सिंह के अलावा मुनिलाल, गोरेलाल यादव, डीपी ओझा, सुधीर कुमार, सर्वेश कुमार (जो अभी बेगूसराय से एमएलसी हैं), सुनील कुमार अरुण कुमार, मुनिलाल , ललित विजय सिंह, डीजी के पद से रिटायर सुनील कुमार ऐसे सरकारी मुलाजिम हैं जिन्होंने राजनीति की राह पकड़ ली. इन चेहरों के अलावा कई अन्य नौकरशाहों के नाम भी शामिल हैं जिन्हें ना तो जनता ने स्वीकारा और ना ही वे किसी राजनीतिक दल के लिए फायदेमंद साबित हुए. इनमें से ज्यादातर नाम अब सियासी पटल पर गुमनाम से हो गए हैं. ऐसे में लोकसभा चुनाव 2024 के पूर्व अपने अपने कुनबे को नौकरशाहों के सहारे मजबूत करने में लगे सियासी दलों की इस लोकलुभावन चाल से जनता को कितना फायदा होगा यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है.  

- कौशलेंद्र प्रियदर्शी 

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