बिहार उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश उत्तराखंड झारखंड छत्तीसगढ़ राजस्थान पंजाब हरियाणा हिमाचल प्रदेश दिल्ली पश्चिम बंगाल

LATEST NEWS

महागठबंधन बनाम एनडीए,बिहार में जातीय सियासत का समीकरण किसके पक्ष में , लोकसभा चुनाव में कौन सी जाति किसकी तरफ, अति पिछड़ा के पेंच में कौन फंसा-तेजस्वी या नीतीश, अब सब कुछ साफ हो गया, पढ़िए

महागठबंधन बनाम एनडीए,बिहार में जातीय सियासत का समीकरण किसके पक्ष में , लोकसभा चुनाव में कौन सी जाति किसकी तरफ, अति पिछड़ा के पेंच में कौन फंसा-तेजस्वी या नीतीश, अब सब कुछ साफ हो गया, पढ़िए

पटना-   बिहार में लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मी तेज होने लगी है. नीतीश ने इंडी गठबंधन का साथ छोड़ कर एनडीए का दामन थाम लिया है. एनडीए और  इंडी गठबंधन  में  सीट शेयरिंग लगभग फाइनल हो चुका है. तमाम दल मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए हथकंडे अपना रहे है. जातीय जननगणना की रिपोर्ट जारी होने के बाद बिहार में सियासी समीकरण परिवर्तित हो गया है.

बिहार की राजनीति में जाति

बिहार में जातीय वर्चस्व की राजनीति 90 के दशक में खत्म न होकर शिफ़्ट हो रही थी. बिहार में पिछ़ड़ी जातियों की गोलबंदी टूटने के साथ नीतीश और लालू का रास्ता भी अलग हो गया. नीतीश बिहार में एक साथ लालू और भाजपा दोनों से नहीं लड़ सकते थे, इसलिए उन्हें किसी के ख़िलाफ़ जाने के लिए किसी न किसी के साथ जाना ही था. साल 2000 के विधानसभा चुनाव में नीतीश और भाजपा को 121 सीटों पर कामयाबी मिली. नीतीश कुमार बिना बहुमत के मुख्यमंत्री बने.

कांग्रेस का आत्मघाती कदम

बिहार में जब तक कांग्रेस सत्ता में रही सवर्णों के हाथ में सत्ता रही. कांग्रेस की सरकारों में ब्राह्मणों, भूमिहारों, राजपूतों और कायस्थों का वर्चस्व रहा, जबकि इन जातियों की आबादी बिहार में मामूली है. कांग्रेस का उस समय राजद के साथ जाना उसके लिए आत्मघाती कदम साबित हुआ. जितनी ऊँची जातियाँ कांग्रेस के साथ थीं, सबके सब नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए की ओर चली गईं. ऊँची जातियों को 2000 में लगा था कि लालू परिवार के शासन का अंत हो जाएगा, लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं होने दिया. ऐसे में ऊँची जातियों का कांग्रेस से नाराज़ होना स्वाभाविक था. साल 2000 आते-आते मंडल की राजनीति पूरी तरह से बिखर गई थी, लेकिन कमंडल की राजनीति अपनी गति से आगे बढ़ रही थी. कमंडल की राजनीति ने लालू से लड़ने के लिए नीतीश का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था और नीतीश ने भी लालू को मात देने के लिए भाजपा का दामन थाम लिया था. नीतीश कुमार 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बन गए.   कुछ समय को छोड़ दें तो गठबंधन किसी से रहा हो उस समय से आज तक नीतीश ही सीएम हैं.

जाति की लड़ाई

नीतीश कुमार ने 2 अक्टूबर 2023 को जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी की तो इसे सीएम का 2024 के चुनाव से ठीक पहले ट्रम्प कार्ड माना गया था. तब नीतीश महागठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे थे. जातीय जनगणना की रिपोर्ट ने ने मंडल कमीशन के दौर के बाद ओबीसी सियासत को गरमाने का नया रास्ता दे दिया है. 1979 में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन बनाया गया. इस आयोग ने ओबीसी वर्ग को आरक्षण देने की सिफारिशें की. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि देशभर में ओबीसी की संख्या 52 प्रतिशत है. उन्हें सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. बताते चलें कि मंडल कमीशन की अध्यक्षता बीपी मंडल ने की थी. आयोग ने साल 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और 1990 में इसे लागू किया गया था. आयोग की रिपोर्ट के विरोध में देशभर में विरोध-प्रदर्शन हुए थे. 2011 में कांग्रेस की यूपीए सरकार ने भी सामाजिक-आर्थिक जनगणना करवाई थी, लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए थे. जातीय जनगणना से पता चला कि राज्य में बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय कुल जनसंख्या 81.99 प्रतिशत है, उसके बाद मुस्लिम 17.70 प्रतिशत हैं. ईसाई, सिख, जैन और अन्य धर्मों से जुड़े लोगों की जनसंख्या एक प्रतिशत से भी कम है. 

ओबीसी बनाम इबीसी

बिहार में ओबीसी वोट बैंक की राजनीति महत्वपूर्ण हो गई है.  अनुसूचित जाति और जनजाति की गिनती तो जनगणना में हमेशा से होती ही आई है. ओबीसी और दूसरी ऊँची जातियों को गिनती अलग से नहीं होती है. लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोट बैंक की राजनीति महत्वपूर्ण होगी. पिछले दो लोकसभा चुनाव साल 2014 औक साल 2019 में ओबीसी वोट बैंक में बीजेपी ने अच्छी सेंधमारी की है. ओबीसी वोट बैंक को लेकर लोकसभा चुनाव में भाजपा नीतीश, कुशवाहा ,मांझी के एनडीए में आने के बाद उतनी हीं आश्वस्त  है, जितनी आश्वस्त अपर कास्ट' के वोट को लेकर है. अपर कास्ट' का वोट बैंक भाजपा के साथ हमेशा रहा है, चाहे बीजेपी चुनाव हारे या जीते. लेकिन ओबीसी वोट के साथ बीजेपी अभी भी ये बात दावे के साथ नहीं कह सकती. ओबीसी में भी  'अपर ओबीसी'जिसमें  यादव हैं  और 'लोअर ओबीसी' हैं. भाजपा ने ओबीसी वोट बैंक में ज्यादा सेंधमारी 'लोअर ओबीसी' में की है. 'अपर ओबीसी' अब भी लालू के राजद के साथ ही है. साल1996 से लेकर 2019 तक भाजपा का ओबीसी वोट शेयर 20 फ़ीसदी से बढ़ कर 37 फ़ीसद हो गया. वहीं क्षेत्रीय पार्टियों के लिए ये वोट शेयर 41 फ़ीसदी से घट कर 26 फ़ीसदी रह गया.  साल 2020 में बिहार के विधानसभा चुनाव में 19 प्रतिशत  ओबीसी वोट भाजपा  को मिला और राजद को 29 फ़ीसदी.

ईबीसी के बीच नीतीश कुमार का दबदबा

अब नीतीश एनडीए के साथ हैं. अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए नीतीश कुमार ने अत्यंत पिछड़ा वर्ग(ईबीसी) के एक बड़े हिस्से को तोड़ दिया और उन्हें पिछड़े वर्ग की तुलना में स्थानीय निकायों और नौकरियों में ज्यादा आरक्षण दिया, जिससे इस वर्ग में नीतीश कुमार का प्रभाव बढ़ा.ईबीसी के समर्थन की मदद से ही नीतीश कुमार, बिहार में लालू प्रसाद यादव को सत्ता से बाहर कर पाए थे. सर्वे के मुताबिक ईबीसी की आबादी 36.01 प्रतिशत है, वहीं पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12 प्रतिशत है. यह ईबीसी के बीच नीतीश कुमार के दबदबे के कारण ही संभव है कि वे इतने लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

उपेंद्र कुशवाहा , जीतन राम मांझी और मुकेश सैनी के साथ होने से बिहार में भाजपा के पक्ष में जातीय गोलंदी होने की उम्मीद राजनीतिक विशलेषक मानते हैं.बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन की बात करें तो इसमें जेडीयू, बीजेपी को लगने लगा है की जातीय समीकरण के बल पर  विपक्षी गठबंधन समेत राजद का सफाया किया जा सकता है.

Suggested News