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लालूवाद विचारधारा पर जदयू का चौथा सवाल - सिर्फ नारा बनकर क्यों रह गई पिछड़ों को शिक्षित करने की बात

लालूवाद विचारधारा पर जदयू का चौथा सवाल - सिर्फ नारा बनकर क्यों रह गई पिछड़ों को शिक्षित करने की बात

ऐ सूअर चराने वाले, ऐ बकरी चराने वाले,

ऐ भैंस चराने वालों, ऐ गाय चराने वालो

ऐ घोंघा चुनने वालों, ऐ काग़ज़ चुनने वालों

ऐ शीशा चुनने वालों, पढ़ना लिखना सीखो, 

पढ़ना लिखना सीखो


PATNA : यह वह नारा है जो 90 के दशक में बिहार में खूब गूंज रहा था. लालू प्रसाद के शासन में पिछड़ों को शिक्षित करने के लिए इस नारे का प्रयोग किया गया, लेकिन यह सिर्फ एक नारा बनकर रह गया, जो लोगों की जुबान पर तो चढ़ा, लेकिन इसे जमीन पर उतारा नहीं जा सका। उक्त आरोप जदयू के मुख्य प्रदेश प्रवक्ता नीरज कुमार ने लगाया है। जो राजद के लालूवाद को विचारधारा बताने को लेकर हर दिन एक सवाल राजद से पूछ रहे हैं। इस लिस्ट में उन्होंने शुक्रवार को अपना चौथा सवाल बिहार की शिक्षा को दयनीय बनाने को लेकर की हैं।

नीरज कुमार ने लिखा कि लालू यादव द्वारा दिए गए ये नारे 1990 के दशक में पिछड़ों की ज़ुबान पर चढ़ी और ज़ुबान तक ही सीमित रह गई। ज़ुबान तक सीमित नहीं रहती तो और कहाँ जाती? लालूवाद ने 15 वर्षों के शासन में शिक्षा बजट, शिक्षकों की संख्या, विद्यालयों की संख्या सबका बँटाधार कर दिया। 15 वर्षों के कार्यकाल में लालूवाद मात्र एक दफ़ा वर्ष 1994 में ही शिक्षकों की भर्ती हु़ई।

उन्होंने लालू काल को अशिक्षावाद से जोड़ते हुए लिखा है कि 1990 में लालूवाद का नारा सिर्फ नारा भर रह गया। जबकि नीतीश कुमार ने राज्य में शिक्षावाद को बढ़ावा दिया। उन्होंने बताया कि बिहार में शिक्षक:छात्र अनुपात 1996 में 1:90 था जो 2005में 1:122 रहा,  जबकि राष्ट्रीय औसत 1:40 था। तथाकथित लालूवाद के दौर में कम से कम 90 हज़ार प्राथमिक शिक्षकों को भर्ती किए जाने की आवश्यकता थी जबकि 15 वर्षों में कुल मात्र 30 हज़ार शिक्षक की भर्ती हुई।

आज बिहार में 28 बच्चों पर एक शिक्षक

माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी की सरकार जब 2005 में सत्ता में आई तो वर्ष 2006-07 के बजट में कुल 2.36 लाख शिक्षक भर्ती करने और शिक्षक: छात्रा अनुपात को 1:40 तक लाने का लक्ष्य रखा गया, जिसे वर्ष 2015 से पहले ही पूरा कर लिया गया। वर्ष 2015-16 आते आते बिहार में शिक्षक:छात्र अनुपात सुधरकर 1:28हो गया। यानी कि 2005 में एक शिक्षक पर जहां 122 छात्रों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी थी वहीं 2015-16 आते आते एक शिक्षक पर मात्र 28 बच्चों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी रह गई।

सत्ता के आगे शिक्षा को किया दरकिनार

सर्व शिक्षा अभियान लागू होने के बाद भी लालू-रबड़ी सरकार शिक्षकों की भर्ती करने में असफल रही। लालूवाद के लिए पिछड़ों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण उनकी पार्टी और सत्ता थी।  लालू सरकार ने शिक्षकों की भर्ती नहीं किया जबकि वर्ष 2001 में केंद्र सरकार द्वारा प्रारम्भ किया गया सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत शिक्षकों के वेतन देने की पूरी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की थी। केंद्र सरकार से लगातार दबाव बढ़ने के कारण अंततः जब दिसम्बर 2003 शिक्षकों को भर्ती करने में तो बिहार सरकार ने NCTE के मापदंडों को मानने से इंकार करते हुए वैसे लोगों को भरना चाहा जिन्होंने कभी टीचर ट्रेनिंग नहीं किया था। इस असंवैधानिक तरीक़े से भर्ती करने के प्रयास पर उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। बिहार सरकार उच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय चली गई और बिहार के छात्रों को नए शिक्षक मिलने का सपना तथाकथित लालूवाद को भेंट चढ़ गया। ये सारा खेल इसलिए रचा गया था ताकि लालू-राबड़ी सरकार अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं और शुभचिंतकों को शिक्षक के रूप में नियुक्त कर सके।

नीतीश ने 2009 में करायी नियुक्ति

नीतीश कुमार जी की सरकार सत्ता में आने के बाद ग़ैर-प्रशिक्षित लोगों को शिक्षक बनाए जाने के लम्बित केस को सर्वोच्च न्यायालय से वापस लिया और अंततः 2009 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसर सभी प्रशिक्षित आवेदनकर्ताओं को शिक्षक बनाया गया क्यूँकि बिहार में जितने शिक्षक को नियुक्त करने की ज़रूरत थी उतने प्रशिक्षित आवेदक ही नहीं थे। अब तक लगभग साढ़े चार लाख स्थायी शिक्षक नियुक्त किए गए हैं।


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