नारद पुराण, वायु पुराण सहित कई अन्य हिंदू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार गयाजी में पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध करने का विशेष महत्व माना गया है. साथ ही पितरों की मुक्ति के लिए मोक्ष धाम में पिंडदान करना सबसे उत्तम कहा गया है. संभवत: यही कारण है कि यहां पिंडदान की परंपरा आदि काल से चली आ रही है. प्रत्येक वर्ष के आश्विन मास में यहां 17 दिवसीय पितृपक्ष मेले का आयोजन होते आ रहा है. त्रेता युग से लेकर द्वापर युग से जुड़े देवी-देवताओं के अलावा ऋषि-मुनि व राजा-महाराजाओं ने भी अपने पितरों के उद्धार व मोक्ष प्राप्ति की कामना को लेकर पिंडदान श्राद्ध कर्म व तर्पण का कर्मकांड किये हैं. इन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीराम, भरत कुमार, ऋषि भारद्वाज, पितामह भीष्म, राजा युधिष्ठिर, भीम सहित कई देवी-देवताओं व राजाओं ने यहां अपने पितरों के उद्धार के लिए पिंडदान श्राद्धकर्म व तर्पण किये हैं.
भगवान राम ने सबसे पहला पिंडदान पुनपुन नदी में क्यों किया था
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान राम और सीता ने अपने पिता की मृत्यु के बाद पुनपुन नदी में प्रथम पिंडदान किया था. पुनपुन नदी को आदि गंगा कहा गया है. इसकी चर्चा पुनः पुना माहत्य में भी है. यहां के संबंध में एक और किंवदंतियां है कि पलामू (अब झारखंड) के जंगल में कुछ ऋषि तपस्या कर रहे थे, तभी ब्रह्मा जी प्रकट हुए. ऋषियों ने ब्रह्मा जी का चरण धोने के लिए पानी खोजा. पानी नहीं मिलने पर ऋषियों ने अपने स्वेद ( पसीना) जमा किये. जब पसीने को कमंडल में रखा जाता और भर जाने पर कमंडल को उल्टा कर दिया जाता था. इस तरह बार-बार कमंडल को उलटे जाने से ब्रह्मा जी के मुंह से अनायास निकल गया पुनः पुना. इसके बाद वहां जल की धारा निकल आयी. उसी समय ऋषियों ने नाम रख दिया पुनः पुना, जो अब पुनपुन के नाम से जाना जाता है. ब्रह्मा जी ने कहा था जो इस नदी के तट पर पिंडदान करेगा, वह अपने पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचायेगा. ब्रह्मा जी ने पुनपुन के बारे में कहा – “पुनः पुना सर्व नदीषु पुण्या, सदावहा स्वच्छ जला शुभ प्रदा”. इसी के बाद से पितृ पक्ष में पहला पिंडदान पुनपुन नदी के ही तट पर करने का विधान है.