"तू जीवन का कंठ, भंग इसका कोई उत्साह न कर,रोक नहीं आवेग प्राण के, सँभल-सँभल कर आह न कर.
उठने दे हुंकार हृदय से, जैसे वह उठना चाहे;किसका कहाँ वक्ष फटता है, तू इसकी परवाह न कर."
दिनकर की ताकत ही यही थी कि वे संभल-संभल कर या चुनिंदा तरीके से आहें भरने वाले लेखकों-कवियों में से नहीं थे, न ही राजनीतिक दलों या विचारों के नफ़े-नुकसान के गणित से अपना ईमान तय करते थे.मानव-मात्र के दुख-दर्द से पीड़ित होने वाले कवि थे. राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि था. शायद इसीलिए वह जन-जन के कवि बन पाए और आज़ाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि का दर्जा मिला. दिनकर को इस ऊंचे ओहदे पर देश की जनता ने बिठाया है, न कि किसी राजनीतिक धड़े ने या विशिष्ट विचारों के प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले एकांगी दृष्टि-युक्त समालोचकों ने.वे तो झक मारकर दिनकर के योगदान को स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए हैं. दिनकर की कविताओँ में राष्ट्रीयता और जन-पक्षधरता का स्वर प्रधान है, लेकिन उनकी राष्ट्रीयता न तो आज के दक्षिणपंथियों जैसी मिलावटी है, न उनकी जन-पक्षधरता आज के वामपंथियों जैसी दिग्भ्रमित. एक विचार के खांचे में फिट बैठने वाले कवि वे नहीं थे. वे मार्क्सवादी थे, तो गांधीवादी भी थे. वे राष्ट्रवादी थे तो समाजवादी भी. वे क्रांतिधर्मी थे तो परंपरावादी भी.जहां जो अच्छा लगा, उसे ही ग्रहण कर लिया.जी हां आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती है.
पटना में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती पर उनके आवास पर राजकीय समारोह का आयोजन किया गया. दिनकर की 115वीं जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, भवन निर्माण मंत्री अशोक चौधरी, जदयू नेता छोटू सिंह समेत कई नेताओं ,अधिकारियों, साहित्यकारों समेत बड़ी संख्या में उनके चाहने वालों ने शिरकत किया.
इस अवसर पर मंत्री अशोक चौधरी ने कहा कि स्वतन्त्रतापूर्व के इस विद्रोही कवि और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इस राष्ट्रकवि ने देश में नवजीवन के संचार के लिए शुरू में ‘परशुराम’ और ‘कर्ण’ जैसे उपेक्षित पात्रों को चुना, वीरता और पुरुषार्थ जिनका निज स्वभाव थी. इनका ‘कुरुक्षेत्र’ भी महाभारत की कहानी को केंद्र में लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया. कुरुक्षेत्र कहता है कि - युद्ध कोई नहीं चाहता, लेकिन जब युद्ध के सिवाय और कोई चारा नहीं हो तो लड़ना ही आखिरी विकल्प है. उन्होंने दिनकर की का उल्लेख करते हुए कहा कि
'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है.
मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं.
वहीं जदयू नेता छोटू सिंह ने कहा कि अंग्रेजी सरकार की नौकरी के बावजूद उनका रवैया सदा उस शासन के विरुद्ध रहा. सरकार को भी यह महसूस होने लगा था कि वे शासन विरोधी हैं. इसका उदाहरण चार साल के वक़्त के बीच हुए उनके 22 तबादले हैं और बार-बार उनकी पेशी भी. ‘हुंकार’ के लिए जब उन्हें कहा गया कि उन्होंने इसे लिखने के लिए इजाजत क्यों नहीं ली, तो उनका साफ़ जवाब यह था – ‘मेरा भविष्य इस नौकरी में नहीं साहित्य में है और इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं यह समझूंगा कि मैं लिखना छोड़ दूं. छोटू सिंह ने कहा कि आज हम केद्रीय शासन को बदलने की तैयारी कर रहे हैं. विपक्ष एकजुट हो गया है, ऐसे में दिनकर की कविताओं से हमें शक्ति मिलती है , लड़ने की, आगे बढ़ने की. उन्होंने कहा कि जनता का विद्रोह का अधिकार उसके अस्तित्व के साथ अविच्छिन्न है और उसे जो सत्ता नाजायज़ ठहराना चाहती है, उसे धूलिसात होना ही पड़ता है. छोटू सिंह ने दिनकर की पंक्ति को याद करते हुए कहा कि
मत खेलो यों बेखबरी में, जनता फूल नहीं है और नहीं वह हिंदू-कुल की सतवंती नारी,
जनसमुद्र यह नहीं, सिंधु है अमोघ ज्वाला का, जिसमें पड़कर बड़े-बड़े कंगूरे पिघल चुके हैं.
लील चुका है यह समुद्र जाने कितने देशों में, राजाओं के मुकुट और सपने नेताओं के भी.
दिनकर के जयंती पर उन्हें याद कर भवभिनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई.हिंदी साहित्य के इतिहास में कि ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों. जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी. दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था. आज सरस्वती के वरद पुत्र की 115 वीं जयंती पर खास लोगों के साथ आम लोगों ने भी उन्हें याद किया.