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नियोजितों,वितरहित,मदरसा एवं संस्कृत शिक्षकों के लिए संघर्ष करने वाले एक मात्र नेता है केदार नाथ पाण्डेय-डॉ.सुनील कुमार

नियोजितों,वितरहित,मदरसा एवं संस्कृत शिक्षकों के लिए संघर्ष करने वाले एक मात्र नेता है केदार नाथ पाण्डेय-डॉ.सुनील कुमार

DESK : बिहार शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र रहा है. इसकी गौरवमयी इतिहास आज भी राजगीर (राजगृह) के खंडहरो मे साफ झलकती है. एक समय था जब देश-विदेश के कोने-कोने से विधातुर लोग बिहार के तरफ अपना रूख करते थे. किन्तु इस इतिहास को यहॉ के रहनुमाओं के गलत नीति निर्धारण ने निगल लिया. आज बिहार के खस्ताहाल शैक्षिक व्यवस्था इनकी ही देन है. राज्य मे वित रहित संस्थाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है जिनका प्रारंभ स्थानीय स्तर के लोगों को शिक्षित करने के उदेश्य से स्थानीय प्रबुद्ध साधन संपन्न लोगो के द्वारा की गई थी. प्रारंभ मे इनका लक्ष्य जनमानस को शिक्षित एवं जागरूक बनाना ही था. शिक्षकों की आजीविका पूर्णत: समाज से प्राप्त सहायता पर ही निर्भर थी. शिक्षकों का शोषण संस्था से प्रबंधन के द्वारा किया जाता था. उनका भविष्य सुरक्षित नही था. जब प्रबंधन चाहा उन्हें दुध की मक्खी की तरह बाहर कर देता था. संस्था के आमदनी का अधिकांश हिस्सा विकास के नाम पर प्रबंधन हड़पना शुरू कर चुका था. तब से राज्य मे कई आम चुनाव हुए सरकारे आई एवं गई किन्तु हालात जस का तस बना रहा. 

2005 मे सरकार के द्वारा नियोजनवाद लाया गया जो दाद मे खाज साबित हुआ. एक साथ लगभग 3 लाख 39 हजार युवाओं को सरकारी शिक्षक के नाम पर बंधुआ मजदूर बनाकर उनके एवं उनके परिवार को जलालत की जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया गया. यह सब एकाएक नहीं हुआ. यह एक सोची समझी रणनीति थी कि गरीब,वंचित एवं कमजोर वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी के नाम पर उनका आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक दोहन किया जाए. इनकी मंशा तब ही जग जाहिर हो चुकी थी. जब इन्होंने बहाली का अधिकार जन प्रतिनिधियों को सौप दिया था. 

मदरसा एवं संस्कृत विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की स्थितियॉ भी इन से इतर नहीं है. इन्हे आज भी वेतन के लिए लम्बा इंतजार करना पड़ता है. इन्हे आज भी बहुत सारी सुविधाओ से वंचित रखा गया है. प्रशिक्षण के नाम पर इन्हे प्रोन्नति से भी वंचित होना पड़ता है. इसमे पढ़ने वाले छात्रों को विभिन्न सरकारी योजनाओ से भी वंचित रखा गया है. अर्थात संक्षेप मे कहा जा सकता है कि सूबे के तमाम शिक्षक चाहे वे नियोजित हो,वितरहित हो,मदरसा या संस्कृत विद्यालयों के शिक्षक हो सभी की समस्याए विकराल रूप धारण कर रही है. 

दुश्यंत कुमार के शब्दों मे,

"पीर पर्वत सी हो गई, पिघलनी चाहिए|

इस हिमालय से कोई,गंगा निकलनी चाहिए||"

इन तमाम समस्याओ से इतफाक रखने वाले एक मात्र शिक्षकों के हितैषी बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष केदार नाथ पाण्डेय ने अपने विधान पार्षद कार्यकाल मे कई अतुल्यनीय कार्य किए है. जिनका लाभ शिक्षकों को समय-समय पर मिला है. लेकिन बड़ा आश्चर्य होता है जब ऐसे ही कोई शिक्षक जो उनके कार्यो का लाभ तो लेते है किन्तु खरी-खोटी सुनाने मे सबसे अग्रणी रहते है. वितरहित संस्थानों मे कार्यरत शिक्षको/कर्मियों के वेतनादि भुगतान हेतु सरकारी अनुदान की व्यवस्था हो या प्रबंधन पर नकेल कसने का मामला. सभी इनके प्रयास से ही हुआ है. आज प्रबंधन को आमदनी का 70% भाग वेतन पर खर्च करने की बाध्यता लागू है. जिससे वे चाह कर भी घपलेबाजी नही कर सकते है. इस प्रकार शिक्षकों को वेतन मद मे अब कुछ राशियॉं प्राप्त होने लगी है. रही बात विहित वेतनमान की तो इसके लिए भी घाटानुदान की पुरजोर मॉंग सरकार से की जा रही है. इन संस्थानो मे पहले प्रबंधन के कानून चला करते थे किन्तु आज कर्मियों के पास एक सेवाशर्त है. बस जरा धैर्य एवं इस महामानव पर विश्वास करने की जरूरत है. 

कहा भी गया है

"गुजर जायेगा ये दौर भी गालिब,

   जरा इत्मीनान तो रख|

   जब खुशी न ठहरी तो,

   इस गम की क्या औकात है||"

अब आते है नियोजितो के मुद्दे पर जिनके साथ सरकार हमेशा छलावा ही करना पसंद करती रही है. इसके बावजूद भी हमारी संघर्षो एवं राज्याध्यक्ष के प्रयासों से कुछ हद तक हमारी समस्याओं का निराकरण होते रहा है. जिनमे नियुक्ति एवं सेवा नियमावली मे समय समय पर आपेक्षिक संशोधन, अवकाशो मे बढ़ोतरी, सवैतनिक प्रशिक्षण अवकाश, अवैतनिक अध्ययन अवकाश आदि,नियत वेतन से वेतनमान मे परिवर्तन, आकस्मिक मृत्यु पर अनुग्रह अनुदान, आश्रितो को अनुकम्पा का लाभ. किन्तु यह नाकाफी है हमारा मूल उदेश्य लेबल 7 एवं लेबल 8 है जिसके लिए निरंतर संघर्ष की आवश्यकता है क्योंकि-

"तट पर बैठे-बैठे तेरे हाथ कहॉ कुछ आयेगा,

रत्न मिलेगा तुझको जब सागर की तह मे जायेगा|

कुछ न आया हाथ समझना डुबकी अभी अधुरी है,

चाहे कितना भी हो मुश्किल पहला कदम जरूरी है||"

हम सभी जानते है कि बच्चा जब तक रोता नही है मॉ उसे दुध नही पिलाती. इस लिए अपनी आवाज को इस गूंगी बहरी सरकार तक पहुचाने के लिए अपने को आंदोलित रखना ही होगा एवं सदन मे हमारे आक्रोश को जोरदार तरीके से रखने के लिए हमारे राज्याध्यक्ष का सदन सदन मे होना अत्यावश्यक भी होगा. आज हमे अपनी ताकत का अहसास सरकार को कराने का समय भी आन पड़ा है और सरकार भी इस बात को बखूबी समझ रही है किन्तु दु:ख की बात है कि हम चुनाव के समय विभिन्न मुद्दों पर विखंडित हो जाते है और इस तनाशाह की कुर्सी सलामत रह जाती है. कल्पना कीजिए सरकार बदलती रहती तो निश्चित रूप से हमे आशातीत सफलता मिल गई होती. आज शिक्षक समाज मे अपमानित महसूस कर रहे है क्योंकि सरकार हमे शिक्षक होने हि नही दिया है. आज समाज मे प्रतिष्ठा की कसौटी उसकी आमदनी हो गइ है न कि ग्यान एवं कार्य. प्रसंगवश मुझे महाभारत की एक उक्ति याद आ रही है-

"घाव बड़ा अपमान का,तड़पे निशदिन प्राण|

मनमाना प्रतिशोध ही,उसका बने निदान||"

संकेत साफ है इस बार शिक्षक सरकार के लिए विकट स्थिति उत्पन्न कर सकते है यदि हमारी मॉंगो पर गंभीरता पूर्वक सकारात्मक विचार नही किया गया. आज बिहार के उच्च/उच्चतर माध्यमिक विधालय प्रधानाध्यापक विहिन हो चुका है. इसके लिए राज्याध्यक्ष सदन मे कई बार दबाव बनाये है कि सरकार बिहार लोक सेवा आयोग के माध्यम से प्रधानाध्यापकों की नियुक्ति हो. जिसमे अर्हता प्राप्त नियोजितो को भी नियमितों के समान अवसर प्रदान किये जाए. उच्च योग्यता धारी यथा (M.Ed.,Ph.D.आदि) को वेटेज मिले. 

निष्कर्षत: शिक्षक आॉदोलन एवं शिक्षा जगत की समस्याओं के लिए पाण्डेय का सदन मे होना शिक्षकों की सबसे बड़ी जीत होगी. 

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