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दिनकर जयंती पर विशेष... "मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।"

दिनकर जयंती पर विशेष... "मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।"

PATNA :  साहित्य जगत में छायावादोत्तर हिंदी काव्यधारा का एक ऐसा सूर्य जो आज से करीब सात दशक पहले जितनी प्रखरता से साहित्य संसार को दैदीप्यमान कर रहा था,वर्तमान में भी उस प्रखरता में कोई कमी नहीं आयी है। आप रामधारी सिंह दिनकर को साहित्यकारों के प्रत्येक विशेषण कवि,लेखक, आलोचक,निबंधकार सभी से विभूषित कर सकते हैं। वीर रस से लेकर श्रृंगार रस तक, करुण रस से लेकर शांत रस तक का रसपान दिनकर की रचनाओं में सहजता से किया जा सकता है। दिनकर ने साहित्य के दस रसों में से एक वीर रस को एक नई ऊंचाई प्रदान करते हुए अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन करने का काम किया। कहा जाता है कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि से ज्यादा जनकवि थे। उनके दिल में सर्वहारा के लिये दर्द भी था तो किसानों की दुर्दशा के प्रति टीस भी,एक तरफ जहां इतिहास उनको कुरेदते रहता था तो दूसरी तरफ वर्तमान उन्हें झकझोरता था।

आज़ादी मिलने के बाद पहले ही गणतंत्र पर सत्ता को सचेत करते हुए दिनकर लिखते हैं… 

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

जनता ?हाँ लम्बी बड़ी जीभ की वही कसम 

जनता सचमुच ही बड़ी वेदना सहती है, 

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ती है।


हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता का रोके राह समय में ताव कहाँ?

वह जिधर चाहती काल उधर मुड़ जाती है

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।


रामधारी सिंह दिनकर एक ऐसे जनकवि थे जो समय और सत्ता की ताकत को हमेशा औकात में रखते थे। जब उन्हें जो लग जाता उसके ख़िलाफ आग उगलने में तनिक देर नहीं करते थे । दिनकर सत्ता को तो आगाह करते ही थे साथ ही जनता को भी । इन पंक्तियों को पढिये...

समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध ,

जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध।


बलि देकर भी बली स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे 

मंदिर और मस्जिद दोनों पर एक तार बाधों रे।


देख जहां का दृश्य आज भी अंतस्थल हिलता है

माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

आज  कोई लेखक और कवि जहां अपने को प्रगतिशील लेखक कह कर विशेषित करते फिरता है तो कोई राष्ट्रवाद को आबाद करने का कर्णधार समझ बैठा है।उन लोगों को  भी दिनकर की रचनाओं से दायित्व बोध का अहसास हो सकता है बशर्ते उससे सबक लेने की कोशिश करें।

उठने दो हुंकार हृदय से

जैसे वह उतना चाहे।

किसका कहां वक्ष फटता है

तू इसकी परवाह न कर।


तू जीवन का कंठ ,

भंग इनका कोई उत्साह न कर 

रोक नहीं आवेग प्राण के,

संभल संभल कर आह न कर।

लेखन के प्रति प्रतिबद्धता का यही प्रमाण दिनकर को साहित्यकारों के बीच महान बनाता है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के मित्र होते हुए भी कभी भी उन्होंने सत्ता की परवाह नहीं की। रत्ती भर भी चिंता किये बगैर दिनकर पल भर में चोट करने से नहीं चूकते थे।

राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद रामधारी सिंह दिनकर को देश की राजधानी दिल्ली की विलासिता एवं संसद की संवेदनहीनता जैसे ही नागवार गुजरी, दिनकर बगैर देर किए अपने तरकस से कलम की तीर चला दी और बेपरवाह कलम ने, "भारत का रेशमी नगर"  नामक कविता जो सत्ताधारियों के लिये कान में गर्म शीशे डालने के सामने था लिख  मारा...

चल रहे ग्राम कुंजो में पछिया के झकोर

दिल्ली लेकिन ले रही लहर पुरवाई में

है विकल देश सारा अभाव के तापों से ,

दिल्ली सुख सोयी है नरम रजाई में।

दिनकर इसी ताकत के लिये आज भी जाने और माने जाते हैं। गांधीवाद,मार्क्सवाद,साम्यवाद, राष्ट्रवाद ,परम्परावाद, सब कुछ रामधारी सिंह दिनकर की कविताओं व निबंधों में लय है । लेखन का विवेकपूर्ण प्रयोग किसी ने किया तो वे थे रामधारी सिंह दिनकर।कोई सीमा नहीं, कोई वाद नहीं ,कोई विवाद नहीं ।गलत को गलत और सही को सही कहने का माद्दा दिनकर की लेखनी में ही था। तभी तो नामवर सिंह जैसे आलोचक कहते है कि वास्तव में रामधारी सिंह दिनकर अपने समय के सूर्य थे। उनके समकालीन प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन तो उनके मुरीद थे । तभी तो कहते थे कि दिनकर को एक ज्ञानपीठ नहीं बल्कि गद्य ,पद्य,भाषा,और हिंदी सेवा के लिये चार ज्ञानपीठ मिलने चाहिये थे।

आज जाति एंव धर्म आधारित राजनीति ने देश का बंटाधार कर रखा है। दिनकर ने इसके खिलाफ भी हुंकार भरा था। कर्ण जैसे इतिहास के उपेक्षित पात्र को भी दिनकर ने अपनी कलम से दोहरा कर दिया...

जाति जाति रटते ,जिनकी पूंजी केवल पाखंड

मैं क्या जानूं जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

जातीय उन्माद फैलाकर राजनीति करने वालों के मुंह पर यह करारा तमाचा है। 

आज  दिनकर जी की 111वीं जयंती

आजादी के लिये कलम से क्रांति का बिगुल फूंकने वाले इस महान विभूति की आज 111 वीं जयंती है 23 सितम्बर 1908 ई0 को बिहार राज्य के बेगूसराय जिला अंतर्गत सिमरिया ग्राम में एक साधारण भूमिहार ब्राह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ था। सिमरिया गंगा के तट पर बसा मिथिला का एक पवित्र तीर्थस्थल जहां आज भी कल्पवास के लिये लोग पवित्र भावनाओं के साथ जुटते हैं । दिनकर इसी गांव के सुपुत्र थे। ये अपने पिता बाबू रवि सिंह व माता मनरूप देवी की दूसरी संतान थे।दिनकर के जन्म के एक वर्ष बाद ही इनके पिता का देहांत हो गया था। आर्थिक विषमताओं के बीच इनका लालन पालन सम्पन्न हुआ। प्रारंभिक शिक्षा बगल के बोरो गांव में हुई बाद में मोकामा से 1928 में मैट्रिक की परीक्षा पास   की। 

1930 में गांधी जी के सत्याग्रह में भी भाग लिया। आर्थिक परेशानी से जूझते हुए बीए पास करने के बाद 55 रुपए मासिक पर हेडमास्टर की नौकरी जॉइन कर ली लेकिन वहां टिक नहीं पाए। 1934 में रजिस्ट्रार की नौकरी मिली 1943 तक उस पद बने रहे। लेकिन इस दौरान कलम आग उगलती रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रचार विभाग का डिप्टी डायरेक्टर बनाये गए लेकिन विद्रोही मानसिकता के दिनकर ने 1950 में इस्तीफा दे दिया।कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष भी रहे।इसके बाद राज्यसभा के सदस्य बनाये गए। भागलपुर विश्वविद्यालय में कुलपति भी रहे।

सिमरिया में रामकथा सह साहित्य महाकुंभ का आयोजन

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की स्मृति में सिमरिया में रामकथा सह साहित्य महाकुंभ का विराट आयोजन किया जा रहा है। 1 दिसंबर से 9 दिसंबर तक चलने वाले समारोह में पूर्वाह्न में सुप्रसिद्ध कथा वाचक मोरारी बापू द्वारा रामकथा तथा अपराह्न में साहित्य महाकुम्भ का आयोजन किया जा रहा है। साहित्य महाकुम्भ में साहित्य सत्र एवं सांस्कृतिक ओलम्पिक का आयोजन किया जाएगा। साहित्य महाकुंभ में विश्व के 167 देशों के एनआरआई साहित्यकार, पत्रकार और धर्मावलंबी भाग लेंगे। देश भर के धर्म, साहित्य और सांस्कृति से जुड़े लोग इसमें मौजूद रहेंगे। आयोजन में भारतीय संस्कृति पर विश्व के कई देशों के संस्कृति प्रेमी अपनी कला का प्रदर्शन कर अभिराम छटा बिखेरेंगें।

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