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बिहार में बहार है : तीस साल से न बदली बिहार की दशा और न सियासी दिशा उल्टे प्रदेश बनता गया राजनीतिक चारागाह, मौज उड़ाते राजनेता!

बिहार में बहार है : तीस साल से न बदली बिहार की दशा और न सियासी दिशा उल्टे प्रदेश बनता गया राजनीतिक चारागाह, मौज उड़ाते राजनेता!

पटना. कुछ सप्ताह पूर्व नीति आयोग ने विभिन्न मानकों पर देश के राज्यों की स्थिति से सम्बंधित एक रिपोर्ट जारी की थी. चाहे गरीबी का हो या रोजगार सृजन, ढांचागत विकास हो या स्वच्छता और स्वास्थ्य मानक, स्त्री सशक्तिकरण की बातें हों या बालिका शिक्षा की स्थिति या फिर आधुनिक कृषि पद्धति पर पड़ताल हो या पलायन रोकने का ठोस उपाय रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि बिहार में बदलाव की ऐसी कोई बयार नहीं बह रही जो बिहार को बीमारू राज्य से बाहर निकाले. विकास के विभिन्न मापदंडों पर सरकारी दावे और हकीकत की कलई खोलती नीति आयोग की रिपोर्ट यह बताने को काफी है कि बिहार की मौजूदा दशा क्या है? 

और यही दशा इन दिनों बिहार के भविष्य की सियासी दिशा तय करने का एक कारण बनता दिख रहा है. राज्य में पिछले 15 वर्षों से अधिक समय से सत्तासीन राजग के पास आज भी उपलब्धि के नाम पर लालू राज का इतिहास बार बार दोहराना ही है. हालांकि सड़क, बिजली, पानी सहित कानून व्यवस्था के क्षेत्र में नीतीश राज में बड़े बदलाव हुए हैं. बावजूद इसके देश के अन्य राज्यों की तुलना में मानव सूचकांक, रोजगार सृजन, निवेश हितैषी परिवेश और इज ऑफ़ डूइंग बिजनेस के मानकों पर राज्य में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ है. आए दिन सरकारी अधिकारियों के यहाँ हो रही छापेमारी में जांच एजेंसियों को अकूत सम्पत्तियां मिल रही हैं जो यह बताने को काफी है राज्य भ्रष्टाचार से कैसे बेहाल है. अफसरशाही की मार से आम आदमी ही नहीं गठबंधन सरकार के मंत्री भी त्रस्त हैं जिसका ताजा उदाहरण 2 दिसम्बर को मंत्री जीवेश मिश्रा के साथ बिहार विधानमंडल में हुई पुलिसिया इंतहा है. इतना ही नहीं समाज सुधार की दिशा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का शराबबंदी का साहसिक निर्णय भी छह वर्ष से ज्यादा बीत जाने के बाद भी आंशिक सफल है. 

देखा जाये तो अपने ही भंवर जाल में बिहार की जमीनी जरूरतें फंसी हुई हैं. सरकारों के प्रयास के बाद भी निवेशकों के लिए बिहार भरोसे का प्रतीक हो यह सपना ही बना है. जमीनी सच्चाई नीति आयोग की रिपोर्ट के आसपास ही है जो ट्रेनों, बसों और हवाई जहाजों में भर-भरकर बिहार के पलायित होते लोगों को देखकर सहसा समझा जा सकता है. 

राजनीतिक दलों के लिए बहार, जनता बेहाल 

बदलाव की मंथर गति से बढ़ते बिहार में सियासी दिशा भी कुछ ज्यादा भिन्न नहीं है. पिछले तीन दशकों से बिहार की पूरी राजनीति लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के इर्द गिर्द जैसे थी वैसे ही आज भी है. हालिया समय में जातीय जनगणना के मुद्दे पर जिस प्रकार जदयू और राजद ने एक जैसा सुर अलापा है वह उसी की पुनरावृति है जो पिछले तीन दशक से बिहार की तीन-चार पीड़ियों ने देखा है. लालू यादव की अस्वस्थता और राजद पर जनता के एक बड़े वर्ग में भरोसे की कमी का नतीजा पिछले महीने बिहार में आये दो विधानसभा सीटों के उपचुनाव के नतीजों में देखने को मिला. तेजस्वी यादव की कुछ वर्गों में स्वीकार्यता बढ़ी है लेकिन ‘जंगलराज’ का भय वे जनता के दिलोदिमाग से निकालने में सफल नहीं हो रहे हैं. इतना ही नहीं जिस प्रकार राजद में आए दिन लालू के लालों के बीच मनमुटाव की खबर आती है या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को किनारे लगाने की बातें राजद के सांगठनिक ढांचे के लिए शुभ संकेत नहीं है. 

और शुभ संकेत यह बिहार के भविष्य की राजनीति के लिए भी नहीं है. जदयू और भाजपा एक साथ होकर भी कई मुद्दों पर दो मत दिखते हैं. हालांकि यह दोनों को पता है कि दो धडा होने पर दोनों दलों को नुकसान होगा. वहीं राम विलास पासवान के निधन के बाद से चिराग पासवान अपने कुनबे को बचाने और संवारने में ही व्यस्त हैं जबकि उनके चाचा अलग राग अलाप कर सत्तासुख का आनंद ले रहे हैं. कहा जाये तो राजनीतिक दलों के लिए बिहार में बहार ही बहार है जबकि जनता बेहाल. सियासत की दिशा को मानो ब्रेक जाम से जूझना पड़ रहा हो पिछले तीस साल से सब घूम फिरकर एक ही जगह स्थिर है. 

प्रिय दर्शन शर्मा की रिपोर्ट 

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