डेस्क... बिहार में जदयू की राष्ट्रीय परिषद् की कार्यकारिणी की बैठक के बाद के रुख ने सियासी गलियारों और एनडीए में हलचल मचा दी है। विरोधी कह रहे हैं कि नीतीश कुमार फिर से पाला बदलने की फिराक में हैं। इसे लेकर महागठबंधन की तरफ से कई ऑफर भी आ चुके हैं। नया साल शुरू होते ही सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने नीतीश कुमार को महागठबंधन में आने का न्योता दे दिया है। नीतीश का सियासी इतिहास देखें तो इस बात को पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता है। ऐसे में 'इधर कुआं-उधर खाई' का मुहावरा नीतीश कुमार के लिए बिल्कुल सटीक बैठता है।
राजनीति में एक कहावत बहुत प्रचलित है, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी, लेकिन कई बार इस कहावत को कुछ इस तरह से पेश किया जाता है- जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी ज़िम्मेदारी। बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एनडीए में शामिल भारतीय जनता पार्टी भी यही करती नजर आ रही है। सूबे में पहली बार दो-दो डिप्टी सीएम बनाना फिर विधानसभा के अध्यक्ष पद पर अपने विधायक को आसीन कराना, इन उदाहरणों से साफ तौर समझा भी जा सकता है।
नीतीश कुमार के साथ गठबंधन सरकार में बीजेपी अपना पूरा हिस्सा लेना चाहेगी फिर ज़िम्मेदारी भी वैसी ही निभाएंगे? बिहार चुनाव में जेडीयू 43 सीटों के साथ तीसरे नंबर की पार्टी बनी और बीजेपी 74 सीटों के साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनी फिर भी नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। हालाकि चुनाव से पहले एनडीए ने अपना चेहरा सीएम के तौर पर नीतीश को ही बनाया था, लेकिन जब संख्या में जदयू पिछड़ी तो राजनीतिक गलियारों में ये बयान आने लगा कि क्या बीजेपी मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार को देगी, लेकिन घोषणा के अनुरूप नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री तो बन गए। बस अब खेल यहीं से शुरू होता है।
शपथ ग्रहण से ऐन पहले नीतीश कुमार ने ये बयान दिया कि बीजेपी चाहें तो वो अपना सीएम बना सकते हैं, लेकिन मैं सीएम उनके ही आग्रह पर बना हूं। इसके बाद क्या था विपक्ष ने इस बयान को लपक लिया और लगातार नीतीश पर हमलावार हो गई। विपक्ष ने नीतीश कुमार के विरोध में बयान पर बयान देना शुरू कर दिया और नैतिकता के आधार पर उन्हें इस्तीफ देने की बात कहने लगे। विपक्ष के कई नेता ने तो यहां तक कह दिया कि नीतीश कुमार फिर से महागठबंधन में शामिल हो जाएं और तेजस्वी यादव को तिलक लगाकर मुख्यमंत्री बना दें।
बीते 2 माह के घटनाक्रम पर गौर करें तो यह साफ है कि संख्या बल में अधिक भाजपा पूरी तरह से सरकार पर अपना कंट्रोल रखना चाहती है। इसकी शुरुआत एनडीए की सरकार बनते ही शुरू हो गई। पहले मंत्रीमंडल में बीजेपी विधायको को तरजीह देना। फिर अहम पदों पर पहली बार भाजपा विधायकों को जिम्मेदारी देना। फिर कैबिनेट का विस्तार नहीं करना। आग लगनी तब शुरू हो गई, जब मुख्यमंत्री ने यह कह दिया कि कैबिनेट का विस्तार तो भाजपा नहीं होने दे रही है। इसके बाद फिर क्या था, विपक्ष ने इस बयान को लपक लिया और कहा डाला कि एनडीए की सरकार में मुख्यमंत्री की कोई औकात नहीं हैं और वो महागठबंधन में फिर से आ जाएं।
इसके बाद रही सही कसर अरुणाचल कांड ने पूरी कर दी, जब अरुणाचल प्रदेश में जदयू के 6 विधायकों को भाजपा में शामिल कर लिया गया। इसके बाद तो मानों नीतीश कुमार बिफर गए और कह डाला कि भाजपा अपना 'अटल धर्म' नहीं निभा रही है। जेडीयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दूसरे दिन पार्टी नेताओं को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने अरुणाचल समेत कई मुद्दों को लेकर बीजेपी के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त की थी और बीजेपी पर इशारों-इशारों में हमला करते हुए नीतीश कुमार ने कहा कि अरुणाचल प्रदेश में उनके 7 विधायकों में से 6 विधायकों को अपनी पार्टी में मिला लिया।
नीतीश कुमार ने एक बार फिर दोहराया कि बिहार विधानसभा चुनाव के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनने की कोई भी लालसा नहीं थी। नीतीश ने कहा कि नतीजों के बाद उन्होंने बीजेपी से साफ कह दिया था कि जनता ने फैसला दे दिया है, कोई भी मुख्यमंत्री बने, चाहे तो बीजेपी का ही मुख्यमंत्री बने। नीतीश कुमार ने कहा, मेरी जरा भी इच्छा नहीं थी मुख्यमंत्री बनने की। मुझ पर दबाव डाला गया था तब मैंने मुख्यमंत्री पद का पदभार ग्रहण किया।
इधर, अब इसी बात का फायदा महागठबंधन उठा रही है। राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद ने परिवार के सदस्यों और राजद नेताओं को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर सीधे राजनीतिक हमला करने से परहेज करने को कहा गया है। यही कारण है कि परिवार का कोई भी सदस्य फिलहाल कहीं कुछ नहीं बोल रहा है।
इन मुख्य बिंदुओं से गौर करें कि क्यों नीतीश पाला बदल सकते हैं
बीजेपी और जेडीयू में विश्वास की कमी
किसी भी रिश्ते की बुनियाद विश्वास पर होती है, लेकिन इस गठबंधन की शुरुआत ही 'विश्वास की कमी' से हुई है। लगातार नरेंद्र मोदी और अमित शाह कहते रहे कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे। ये दोनों के बीच विश्वास की कमी की वजह से ही हुआ है।
बीजेपी को हमेशा इस बात की आशंका थी कि कहीं नीतीश कुमार दोबारा आरजेडी के खेमे में चले जाएंगे तो बीजेपी का भविष्य में अकेले के दम पर बिहार जीतने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा। वहीं, नीतीश कुमार समाजवादी विचारधारा में विश्वास रखते हैं जबकि बीजेपी बहुसंख्यकवाद विचारधारा में विश्वास रखती है।
सरकार बनते ही, सरकार कितने दिन चलेगी इस पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए थे। ऐसे गठबंधन को पांच साल चला पाना केवल नीतीश कुमार के हाथ में नहीं होगा।
जानकार मानते हैं कि इस बात की कोशिश बीजेपी ज़रूर करेगी कि दो-तीन साल बाद सत्ता उनके हाथ में आ जाए।
भारत में हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बिहार एकमात्र प्रदेश है जहां मुख्यमंत्री बीजेपी का नहीं है। इस बात की बेचैनी चुनाव परिणाम आने के बाद बीजेपी में और भी देखने को मिलती नजर आ रही है। बीजेपी अब इस कोशिश में लग गई है कि सरकार न गिरे और नीतीश कुमार केंद्र में चले जाएं और बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई बीजेपी का नेता बैठ जाए। बीजेपी आने वाले समय में ऐसा ऑफ़र उन्हें देना भी चाहेगी।
पांच साल गठबंधन सरकार चले इसके लिए बीजेपी राजनीति का नहीं, कूटनीति का प्रयोग करेगी।
नीतीश के सामने ये चुनौतियां
सवाल उठ रहे हैं कि नीतीश कुमार का लगातार चौथा टर्म पहले के मुकाबले ज़्यादा मजबूत होगा या फिर मजबूरी भरा। कई जानकारों के मुताबिक़ इस बार नीतीश कुमार के लिए मुख्यमंत्री बनना उनके राजनीतिक जीवन का सबसे चुनौती भरा कार्यकाल रहने वाला है। उन्हें सरकार चलाने के अब तक के तौर तरीके में बदलाव लाने की ज़रूरत होगी। ये उनके लिए पहली चुनौती है।
अब चुनाव नतीजों के बाद नीतीश कुमार और उनकी पूरी टीम में इस बात का ग़ुस्सा है कि चिराग पासवान की पार्टी को बीजेपी ने जानबूझ कर जेडीयू के ख़िलाफ़ खड़ा किया। एलजेपी की वजह से जेडीयू का ग्राफ़ इतना गिरा। ऐसे में शंका के बीज दोनों ही तरफ़ से बोए गए हैं, इसका असर गठबंधन पर और सरकार चलाने पर ना पड़े ये नीतीश कुमार की दूसरी बड़ी चुनौती होगी।
ये सब जानते हैं कि बीजेपी, बिहार में पार्टी का और विस्तार करना चाहती है। ऐसे में दोनों विचारधाराओं में तालमेल बिठाना नीतीश की तीसरी बड़ी चुनौती होगी।
मजबूत विपक्ष
नीतीश कुमार के सामने अब पुराना विपक्ष नहीं है। इस विपक्ष में अब एक 31 साल का नया चेहरा तेजस्वी यादव भी है, जो कुछ हद तक अपने पिता लालू यादव की परछाईं से निकल कर अपने बूते चुनाव लड़े और सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरे भी। प्रदेश की सरकार के पास जो बहुमत है वो बहुत कांटे की है। ऐसे में एनडीए के दूसरी सहयोगी पार्टी चाहे 'हम' हो या फिर 'वीआईपी' पार्टी इनके रुख़ पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।
पटना से मदन कुमार की रिपोर्ट...