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जीरो से हीरो बनने वाले एक मजदूर की बेमिसाल कहानी, एल्युमीनियम पैकेजिंग इंडस्ट्री के बेताज बादशाह हैं दादा

जीरो से हीरो बनने वाले एक मजदूर की बेमिसाल कहानी, एल्युमीनियम पैकेजिंग इंडस्ट्री के बेताज बादशाह हैं दादा

Desk: सुदीप, आज उनके पास बंगला है, पैसा है, गाड़ी है लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब वो एक कमरे में 20 लोगों के साथा रहते थे और माया नगरी मुंबई में मजदूरी करते थे.

पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर से संबंध रखने वाले सुदीप दत्ता के पिता आर्मी में थे. 1971 की जंग में गोलियां लगने के बाद से वो दुर्बल हो गए थे. ऐसी स्थिति में बड़ा भाई ही परिवार के लिए उम्मीद की किरण था. यह उम्मीद भी तब खत्म हुई जब आर्थिक तंगी के चलते परिवार बड़े भाई का इलाज़ न करवा सका और उनकी मृत्यु हो गई. बच्चे के पिता बड़े भाई की मौत के सदमें में चल बसे. अपनी लाचार मां उस बच्चे के लिए भावनात्मक सहारा जरुर थी पर अपने चार भाई-बहनों के जितनी एक बड़ी जिम्मेदारी भी थी. दोस्तों के द्वारा दिया गया सुझाव तब सही साबित हुआ जब उस बच्चे को 15 रुपये की नौकरी और सोने के लिए एक जगह मिली. सोने की जगह एक ऐसे कमरे में थी जहाँ 20 मजदूर रहते थे. कमरा इतना छोटा था कि सोते वक़्त भी वहां हिलने की जगह नहीं थी और ये जगह थी मुंबई. 

सुदीप दत्ता, हर दिनमीरा रोड स्थित अपने घर से जोगेश्वरी स्थित अपनी फैक्ट्री तक और वापस 40 किलोमीटर चलता थे. तकलीफ़ भरी जिंदगी में एक यही उपलब्धि थी कि इससे बचाया हुआ पैसा वो अपनी मां को भेज पाता. दो साल की मजदूरी के बाद नया मोड़ तब आया जब नुकसान के चलते उसके मालिकों ने फैक्ट्री बंद करने का निर्णय ले लिया. ऐसी कठिन परिस्थियों में सुदीप ने नई नौकरी ढूंढने के बजाय फैक्ट्री ख़ुद चलाने का निर्णय लिया. अपनी अबतक की बचाई हुई पूंजी और एक दोस्त से उधार लेकर 16000 रुपये इकठ्ठा किये. 19 साल का सुदीप जिसके लिए ख़ुद का पेट भरना एक चुनौती थी, उसने सात अन्य मजदूर के परिवारों को चलाने की जिम्मेदारी ली थी. फैक्ट्री खरीदने के लिए 16000 की राशि बहुत कम थी पर सुदीप ने दो साल मुनाफा बांटने का वादा कर अपने मालिकों को मना लिया. सुदीप उसी फैक्ट्री का मालिक बन चुका था जहां वह कल तक मजदूर था. एल्युमीनियम पैकेजिंग इंडस्ट्री उस समय अपने बुरे दौर से गुजर रही थी. जिंदल एल्युमीनियम जैसी कुछ गिनी-चुनी कंपनियां अपने आर्थिक मजबूती के आधार पर मुनाफ़ा कर पा रही थी. सुदीप यह जान गए थे बेहतर उत्पाद और नयापन ही उन्हें दूसरों से बेहतर साबित करेगा. अच्छा विकल्प होने के वावजूद जिंदल जैसों के सामने टिक पाना आसान नहीं था. सुदीप ने वर्षों तक बड़े ग्राहकों को अपने उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में समझाना जारी रखा और साथ ही छोटी कंपनियों के ऑर्डर्स के सहारे अपना उद्योग चलाते रहे.

बड़े कंपनियों के अधिकारी से मिलने के लिए सुदीप घन्टों तक इंतजार करते. उनकी मेहनत और संभाषण कौशल ने तब रंग लाया जब उन्हें सन फार्मा, सिपला और नेसले जैसी बड़ी कंपनियों से छोटे-छोटे आर्डर मिलने शुरू हो गए. सुदीप ने सफ़लता का स्वाद चखा ही था लेकिन उन्हें आनी वाली चुनौतियों का अंदेशा नहीं था. उद्योग जगत के वैश्विक दिग्गज अनिल अग्रवाल ने इंडिया फॉयल नामक बंद पड़ी कंपनी खरीदकर कर पैकेजिंग क्षेत्र में खदम रखा था. अनिल अग्रवाल और उनका वेदांत ग्रुप विश्व के चुनिंदा बड़ी कंपनियों में से एक रहे हैं और उनके सामने टिक पाना भी नामुमकिन सा लक्ष्य था. वेदांत जैसी कंपनी से अप्रभावित रहकर सुदीप ने अपने उत्पाद को बेहतर बनाना जारी रखा. साथ ही उन्होंने अपने ग्राहकों से मजबूत संबंध बनाये रखे. अंततः वेदांत समूह को सुदीप की दृढ़ता के सामने घुटने टेकने पड़े और इंडिया फॉयल कंपनी को सुदीप को ही बेचना पड़ा. इस सौदे के बाद वेदांत समूह पैकेजिंग इंडस्ट्री से हमेशा के लिए विदा हो गए. इसके उपलब्धि के बाद सुदीप ने अपनी कंपनी को तेज़ी से आगे बढ़ाया और फार्मा कंपनियों के बीच अपनी एक पहचान बनाई. बीमार कंपनियों को खरीदकर उन्होंने अपने उत्पाद क्षमता में इजाफा किया. इंडियन एल्युमीनियम कंपनी के डिस्ट्रीब्यूटर बनकर उन्होंने अपनी क्षमता में अपार वृधि की. 1998 से लेकर 2000 तक उन्होंने 20 प्रोडक्शन यूनिट स्थापित कर दिए थे. सुदीप की कंपनी एस डी एल्युमीनियम अपने क्षेत्र की एक अग्रणी कंपनी है और साथ ही बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचित भी है. अपनी अभिनव सोच के कारण उन्हें पैकेजिंग इंडस्ट्री का नारायणमूर्ति भी कहा जाता है. सुदीप की कंपनी एस डी एल्युमीनियम का मार्किट कैप 1600 करोड़ रुपये से ज्यादा रहा है.

विपरीत परिस्थियों के वावजूद इतनी विशालकाय उपलब्धि करने वाले सुदीप कांदिवली स्थित अपने शानदार ऑफिस से अपना बिज़नेस साम्राज्य चला रहे हैं. आज उनका केबिन उस कमरे से कई गुणा बड़ा है जहां वे 20 लोगों के साथ रहा करते थे. चंद पैसे बचाने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलने वाले सुदीप के पास बीऍमडव्लू और मरसीडीज जैसी कई आलिशान गाड़ियाँ है. जीवन में बहुत कुछ हासिल करने के बाद भी सुदीप अपनी पृष्टभूमि से जुड़े हैं, उनके फैक्ट्री के सारे मजदूर आज भी उन्हें दादा कहकर बुलाते हैं. 

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