'जाति! हाय री जाति !' जेपी ने जाति के खिलाफ किया था जनेऊ तोड़ो आंदोलन, अम्बेडकर, पेरियार, फुले सबने चलाया जाति विरोधी अभियान... फिर भी नहीं गई जाति

जाति है कि जाती नहीं, शर्म है कि आती नहीं/ है दिए में तेल भी, पर एक भी बाती नहीं। जाति है कि जाती नहीं... कवि बच्चा लाल 'उन्मेष' ने यह कविता भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था पर तंज के तौर पर लिखी थी. लेकिन जाति सच में नहीं जा रही है. जाति जनगणना की घोषणा होते ही देश भर में सत्ता पक्ष से जुड़े सियासी दल हों या विपक्षी पार्टियां सभी इसे एक बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं. लेकिन देश में एक दौर ऐसा भी रहा जब जाति को तोड़ने के लिए भी लोगों ने संकल्प लिया.
खासकर देश की मौजूदा राजनीति के प्रमुख दलों में भाजपा और समाजवादी विचारधारा की पार्टियां जिस जेपी आंदोलन के बहाने कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए उस जेपी ने ही जाति-भेद मिटाने को 1974 में जनेऊ तोड़ो आंदोलन चलाया था. जेपी के गांव सिताब दियरा में जाति भेद मिटाने के लिए छह सितंबर 1974 को जनेऊ तोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था. गांव में स्थित पीपल के पेड़ के नीचे विशाल सभा हुई थी. तब जेपी के साथ लगभग 10 हजार लोगों ने अपना जनेऊ तोड़ यह संकल्प लिया था कि वे जाति प्रथा को नहीं मानेंगे. इस आंदोलन में स्वयं युवा तुर्क चंद्रशेखर सभा का संचालन कर रहे थे. वही चंद्रशेखर बाद में देश के प्रधानमंत्री बने.
"जाति का विनाश"
भारत की सियासत में दलित राजनीति को साधने के लिए सियासी दल जिन डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं उन्होंने भी जातिवाद के खिलाफ एक व्यापक अभियान चलाया, जिसमें उनकी मुख्य बातें थीं जाति व्यवस्था को खत्म करना, दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करना, और एक समान समाज की स्थापना करना। उन्होंने अपनी किताब "जाति का विनाश" में जाति व्यवस्था की आलोचना की और अंतरजातीय विवाह तथा धार्मिक ग्रंथों के विनाश का समर्थन किया. 1936 में प्रकाशित अपनी पुस्तक "जाति का विनाश" में, अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और इसके उन्मूलन की वकालत की.
जाति-व्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत
तमिलनाडु में कई सामाजिक आंदोलन के जनक रहे ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ भी जाति व्यवस्था के विरोधी थे. उनका मानना था कि “हिंदू-धर्म और जाति-व्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत स्थापित करते हैं.” पेरियार ने गैर-द्विजों (ब्राह्मणों) और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं. पेरियार जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे. उन्होंने इसे सामाजिक अन्याय और असमानता का कारण माना. उन्होंने तर्क दिया कि जाति व्यवस्था केवल एक सामाजिक संरचना नहीं है, बल्कि यह धर्म और संस्कृति के द्वारा भी समर्थित है, और इसलिए इसे खत्म करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है.
जाति व्यवस्था से भेदभाव
महाराष्ट्र में भी सावित्रीबाई फुले ने जाति व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत आवाज उठाई. उन्होंने अस्पृश्यता और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों को जातिगत भेदभाव से दूर रहने के लिए प्रेरित किया. सावित्रीबाई ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जो जातिगत भेदभाव और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ एक आंदोलन था. उन्होंने जातिगत भेदभाव के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने के लिए महिला सेवा मंडल की स्थापना की.
जाति विरोधी धर्म
इतना ही नहीं भारत में जाति व्यवस्था के खिलाफ धर्म भी हैं. जैसे सिख धर्म जाति व्यवस्था के खिलाफ है और समानतावादी सिद्धांतों को बढ़ावा देता है. सिख धर्म के गुरु और धर्मग्रंथ जाति व्यवस्था के खिलाफ बोलते हैं और जाति और लिंग समानता के लिए वकालत करते हैं. सिख धर्म सभी को समान मानता है, चाहे उनकी जाति या लिंग कुछ भी हो. सिख गुरुद्वारों में लंगर (सामूहिक भोजन) में सभी जातियों के लोग एक साथ भोजन करते हैं, जो जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक मजबूत संदेश है. इसी तरह जैन और बौद्ध धर्म भी जाति व्यवस्था के खिलाफ रहा है.
अब तो जाति की राजनीति
ऐसे में दिनकर की पंक्तियां याद आती हैं कि 'जाति! हाय री जाति !' 'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड... तो भारत में पिछले सैंकड़ों साल से जाति व्यवस्था विरोधी आंदोलन का निष्कर्ष यही कहा जा सकता है की जाति हमारी सियासत में और ज्यादा गहरे जड़ जमा चुकी है. अब तो जाति की राजनीति के लिए पूरी सियासी बिसात तैयार है. यहां तक की जिन सामाजिक नायकों का नाम ले लेकर राजनीतिक दल अपनी राजनीति चमकाते हैं वे भी जेपी हों या अंबेडकर, पेरियार हों या सावित्रीबाई फुले उनके जाति व्यवस्था के विरोधी अभियान को अपनाने से दूर ही हैं.