Political News -शुद्रों का तिरस्कार उनकी नियति, बुद्धिमान चतुर लोगों ने श्रम के आधार को समाज का किया वर्गीकरण - मो. नुरूल होदा
Political News - वक्फ कानून के विरोध में अपनी नौकरी छोड़ने के बाद वीआईपी में शामिल हुए मो. नुरूल होदा ने कहा कि शुद्रों का तिरस्कार उनकी नियति बन गई है। कुछ चतुर लोगों ने इसका वर्गीकरण किया।

Patna - विकाशील इंसान पार्टी के नेता और पूर्व नौकरशाह मो. नुरुल होदा ने कहा कि मूल रूप से हम सभी भौगोलिक और जीवाश्मिक उत्पत्ति के आधार पर महा-उपमहाद्वीप गोंडवानालैंड के विखंडित कण हैं। भारतीय प्रायद्वीप की उत्पत्ति काल से ही मानव निवास और सभ्यता का उद्गम स्थल रहा है। वर्तमान भारत की कहानी हड़प्पा सभ्यता से आरम्भ होती है, जो समकालीन विश्व की अन्य सभ्यताओं जैसे सुमेर (बेबीलोन) और मेसोपोटामिया से अग्रणी और आधुनिक थी।
उन्होंने कहा कि भाषाई और पुरातात्विक कार्यों पर आधारित डेविड एंथनी की 2007 की पुस्तक "द हॉर्स, द व्हील, एंड लैंग्वेज" में इंडो-यूरोपीय मूल को स्टेपी प्रदेश से जोड़ा गया है। 2019 में 117 भूवैज्ञानिकों, पुरातत्वविदों और इतिहासकारों के समूह ने "दक्षिण और मध्य एशिया में मानव आबादी का गठन" नाम से प्रकाशित शोधपत्र में, जिसमें वाघीश नरसिम्हन और डेविड रीच भी शामिल थे, व्यक्तियों के प्राचीन डीएनए का विश्लेषण किया और निष्कर्षित किया कि सिंधु घाटी सभ्यता (लगभग 1900 ईसा पूर्व) के पतन के बाद, इसके लोग लगभग 2000 से 1500 ईसा पूर्व के बीच आने वाले स्टेपी चरवाहों के साथ मिल गए, जिससे आधुनिक दक्षिण एशियाइयों की वंशावली में स्टेपी वंश का प्रवाह होता है।
वीआईपी के नेता मो. होदा आगे कहते हैं कि ABO डेटा सिस्टम, जीनोम अध्ययन एवं DNA अनुक्रमण के साक्ष्यों ने स्पष्ट किया कि भारत की आबादी कई पैतृक समूहों से बनी, जिसमें स्थानीय शिकारी-संग्रहकर्ता, ईरानी संबंधित किसान, और स्टेपी चरवाहे शामिल थे। स्टेपी प्रदेशों (जर्मनी, ईरान आदि) से अवर्जन के साथ ही उत्तर पश्चिम भारत में नई वैदिक सभ्यता का उदय हुआ, जो अपनी भाषा (यमनाय संस्कृति), ग्रंथों और देवगणों के आधार पर स्टेपी प्रदेशवासियों से आनुसांगिकता दर्शाते हैं। संस्कृत भाषा और इंडो-यूरोपीय ग्रुप से लैटिन, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, जर्मन जैसी भाषाओं का एक समूह विकसित होता है। मध्य एशियाई समाज की तरह पुरुष प्रधान उत्तर भारतीय समाज का आरम्भ होता है। आश्चर्यजनक रूप से हड़प्पा के जीनोम और जीवन में उपरोक्त तथ्य अनुपस्थित हैं।
उन्होंने कहा कि आर्थर मौरेंट के 1954 के कार्य "द डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ द ह्यूमन ब्लड ग्रुप्स" ने, आधे मिलियन लोगों से डेटा संकलित किया, यह दिखाते हुए कि रक्त समूह आवृत्तियाँ मानव विविधता और गतिविधि को कैसे मैप कर सकती हैं। जीनोमिक अध्ययनों ने तब से इस चित्र में गहराई जोड़ी है। रक्त समूह वितरण और जीनोमिक डेटा बार-बार प्रवास, संकुचन (बॉटलनेक), और मिश्रण की कहानी बताते हैं।
पूर्व नौकरशाह मो. नुरुल होदा ने कहा , "देश में देशज और आवर्जक का हंगामा खड़ा करने वालों को उपरोक्त ब्लड पैटर्न पर ध्यान देना चाहिए जहाँ दक्षिण भारतीय स्वयं को नेटिव अमेरिकन से निकट और उत्तर पश्चिम भारतीय अपने को मध्य यूरोप और यूरेशिया के निकट पाते हैं। मूलवासी स्थानिक देशज लोग भारत और भारतीय संस्कृति के असली मालिक हैं।"
उन्होंने स्पष्ट कहा कि बुद्धिमान चतुर लोगों ने श्रम के आधार को समाज के वर्गीकरण का आकार दे दिया जिससे उत्पादक वर्ग परिश्रम और परोपकार के नैतिक मूल्यों में विश्वास करने लगा। क्षेत्र विस्तार और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर योद्धा और शासक वर्ग की उत्पत्ति और महत्ता का महिमामंडन प्रतिस्थापित किया गया। वर्गीकरण का यह कार्य मूल रूप से आर्यन उत्पत्ति से अपनी जैविक निरंतरता स्थापित करता है।
वे कहते है कि बड़ी चतुराई से दास प्रथा की चुनौती को समाहित और संयोजित करने हेतु भारतीय परिवेश में एक चतुर्थ वर्ग 'शुद्र' की स्थापना की जाती है जिसके मूल में तिरस्कार निहित कर दमन उनकी नियति तय की जाती है। हज़ारों वर्षों के तिरस्कार और अपमान ने इस वर्ग को ये अभ्यस्त कर दिया है कि ईश्वर प्रदत्त संसार में यही इनकी नियति है। विचारों, भावनाओं और संवेदनाओं को निरंतर दमित किया जाता रहा ताकि कभी समानता का अधिकार न मांगा जाए।
मानव का अस्तित्व और सभ्यता का विकास अत्यंत दीर्घकालीन कालखंड का विषय बताते हुए उन्होंने कहा कि शिकारी-संग्रहकर्ता से शुरू हुई कहानी जीविका संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए समुद्र/नदियों के किनारे का सामूहिक जीवन के आधार पर संस्कृति बनती है। जल जीवन आधारित सभ्यता के विकास में नाविक, मछुआरे और निषाद सामाजिक जीवन के अविभाज्य अंग थे। इनकी स्थानीयता, समुद्र, नदी, नाले आधारित जीवन शैली, अल्हड़पन और संतुष्ट जीवन ने कभी इनको सत्ता संघर्ष और आधुनिक जीवन की ओर आकर्षित नहीं किया।
मूलतः ये स्थानिक और देशज़ लोग हैं जिनकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और स्थिति आदिवासियों जैसी ही है। मछुआरा जातियां जैसे बागदी और दुलेय को पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति तथा गौड्डु और नायक्स को आंध्र प्रदेश में अनुसूचित जन-जाति के रूप में मान्यता दी गई है जबकि राष्ट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड एससी मछुआरा सहकारी समितियों को तेलंगाना ने मान्यता दे रखी है। अभाव और वंचन को भिन्न प्रदेशों में पृथक सामाजिक वर्गों में रखा जाना विस्मित करता है।
अंत मे उन्होंने बताया कि अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 का विस्तार और 1965 के लोकुर समिति के जनजातीय दर्जे के मानदंडों के अनुरूप तटीय या नदीय मछुआरा जनजातियों को विशिष्ट सांस्कृतिक प्रथाएँ और पारंपरिक आजीविका पर निर्भरता, आदिम लक्षण और अलगाव के आधार अनुसूचित जाति/जनजाति में समावेशन की मांग मानकर, आरक्षण और कल्याण योजनाओं तक उनकी पहुंच से ही सदियों की वंचना का समाधान हो सकता है।
उन्होंने जोर देते हुए कहा , ' आरक्षण के लाभ का दायरा बढ़ाकर शिक्षा, नौकरियों, और संसाधनों तक सभी शोषितों, वंचितों और उपेक्षित वर्गों की समान भागीदारी और कल्याण को सुनिश्चित करना ही शासन और संविधान का लक्ष्य निर्धारित है, अतः सबको समान अवसर प्रदान करने में सभी वंचित वर्गों के ऐतिहासिक पृथकीकरण, सामाजिक पिछड़ापन और वंचन को उचित महत्व देने की आवश्यकता है।"