Bihar News- आज़ादी के बाद बिहार के इस विधानसभा सीट पर एक ही परिवार का रहा दबदबा, कभी पिता और बेटे हुए आमने-सामने
Bihar News - हम आपको -बिहार के एक ऐसे विधानसभा क्षेत्र के बारे में बताने जा रहे है । जहाँ अभी पिछले कई दशको से एक ही परिवार का कब्जा है।
Bihar News - बिहार के चार विधानसभा सीटों पर उपचुनाव कराये जायेंगे। जिसमें रामगढ़, इमामगंज, बेलागंज और तरारी शामिल है। रामगढ़ विधानसभा की कहानी शुरू करने से पहले इस बात को बताना जरूरी है कि इस विधानसभा पर लंबे समय तक ‘समाजवाद’ की पताका लहराता रहा है। लालू और नीतीश वाली नहीं, बल्कि लोहिया, जयप्रकाश, कर्पूरी और चौधरी चरण सिंह वाली। यहां से कभी सच्चिदानंद सिंह जीतते थे। ऐसा कहा जाता है कि डॉ लोहिया को शाहाबाद में सच्चिदानंद सिंह ही लाए थे और कर्पूरी ठाकुर को सीएम बनाने में भी उनकी अहम भूमिका थी। बाद के दिनों में सच्चिदानंद और जगदानंद में ही घमासान हुआ और कांग्रेस से प्रभावती सिंह जीत गईं। उसके बाद से जगदानंद ही लगातार जीतते रहे। पहले लोकदल और बाद के दिनों में जनता दल होते हुए राष्ट्रीय जनता दल।
रामगढ़ विधानसभा सीट कैमूर जिलें के अन्तर्गत आती है। लेकिन इस विधानसभा का लोकसभा क्षेत्र बक्सर हैं। यह विधानसभा सीट क्षेत्र 1952 के प्रथम बिहार विधानसभा चुनाव के समय अस्तित्व में आया । 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार दशरथ तिवारी ने जीत दर्ज की । 1957 के चुनाव में कांग्रेस के विश्वनाथ राय और 1962 के चुनाव में कांग्रेस के विश्वनाथ राय ने ही जीत दर्ज की। 1967 का बिहार विधानसभा चुनाव एक अनोखा चुनाव था। वर्ष 1967 में बिहार (संयुक्त बिहार) में विधानसभा का चौथा चुनाव हुआ। पहली बार इस चुनाव में कांग्रेस को बहुमत हासिल नहीं हो सकी। इसके पहले के तीनों चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन क्रमश: घटता गया था, पर हर बार वह बहुमत प्राप्त करने में सफल रही थी। इन्हें बहुमत हासिल नहीं होने के कारण आजादी के बाद पहली बार बिहार में गैर कांग्रेस सरकार बनी।
इस चुनाव में कांग्रेस को कुल 318 सीटों में से 128 पर रही संतोष करना पड़ा। 68 सीटें प्राप्त कर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी। इसी संसोपा के टिकट पर पहली चुनाव जीते सच्चिदानंद सिंह [1967] . 1964 के पहले प्रजा सोश्लिस्ट पार्टी और सोश्लिस्ट पार्टी अलग थी। 1964 में बनारस में सम्मेलन हुआ। जिसमें प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के तत्कालीन नेता रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर भी शामिल हुए। यही दोनों दलों को मिला कर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी। संशोपा ने नारा दिया- संशोपा ने बांधी गांठ- पिछड़ा पावे सौ में साठ, अंग्रेजी में काम न होगा-फिर से देश गुलाम न होगा। चुनाव में यह नारा लोकप्रिय हुआ। इसी विधानसभा चुनाव में कई एसे प्रत्यासी चुनाव जीते थे। जिन्हाने बिहार की राजनीति में अपनी अमित छाप छोड़ी । उनमें से एक थे हुकमदेव नारायण यादव। हुकमदेव नारायण यादव पहली बार इसी चुनाव में केवटी विधानसभा से विधायक बने थे। लेकिन 2 साल के बाद ही 1969 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुआ और इस चुनाव में विश्वनाथ राय ने सच्चिदानंद सिंह को पटखनी दे दी। लेकिन 1972 के विधानसभा चुनाव में सच्चिदानंद सिंह ने एक बार फिर जीत का परचम लहराया। 1977 मे भी उन्होने जीत दर्ज की और कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार में वह सिंचाई मंत्री भी बने। फिर आया 1980 का चुनाव।
इस चुनाव में सच्चिदानंद सिंह के साथ खेला हो गया। इसी चुनाव मे रामगढ़ विधानसभा एक नया नाम आया और वो नाम अभी तक बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बना हुआ हैं। वो नाम हैं जगदानंद सिह। जनता पार्टी सेकुलर के टिकट पर दोबारा चुनाव का सामना करने वाले सच्चिदानंद सिंह अपनी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे। क्योंकि उन्हें खुद अपनी लोकप्रियता का अंदाज था। उनके खिलाफ कांग्रेस ने प्रभावती सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया था। सच्चिदानंद सिंह के सपनों की उड़ान को उस वक्त धक्का लगा। जब उनके अपने ही भाई जगदानंद सिंह ने रामगढ़ सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा दाखिल कर दिया। जगदानंद के मैदान में उतरने से मुकाबला त्रिकोणीय के साथ बेहद दिलचस्प हो गया था। अब सभी की नजर रामगढ़ सीट पर थी। हर कोई ये जानने के लिए बेताब था कि क्या सच्चिदानंद अपने सीट की रक्षा कर पाएंगे। चुनाव परिणाम चौंकाने वाले थे। तत्कालीन चुनावी विश्लेषक दोनों भाइयों के बीच सीधी लड़ाई मान रहे थे। लेकिन दोनों भाइयों की इस लड़ाई में जीत मिली कांग्रेस की प्रभावती सिंह को।
उन्होंने करीब 1500 वोटों से जीत हासिल की। प्रभावती को 15953 मत, सच्चिदानंद सिंह को 14198 मत तथा उनके भाई और निर्दलीय उम्मीदवार जगदानंद को 10 हजार के करीब वोट मिले। जानकारों के मुताबिक इस हार के बाद सच्चिदानंद सिंह टूट गए थे। हालांकि जगदानंद का जोश बरकरार था। 1985 के विधानसभा चुनाव में सच्चिदानंद सिंह चुनाव मैदान में नहीं उतरे। जबकि कांग्रेस से प्रभावती सिंह दोबारा मैदान थीं। इस बार लोकदल ने जगदानंद सिंह को उम्मीदवार बनाया। यहां बाजी पलट गई। जगदानंद सिंह बड़े अंतर के साथ विजयी हुए। प्रभावती दूसरे स्थान पर रहीं। इसके बाद जगदानंद सिंह अपनी जबरदस्त लोकप्रियता के चलते रामगढ़ सीट से लगातार छह बार विधायक निर्वाचित हुए और 1985 से 2009 तक रामगढ़ से विधायक रहे । इस दौरान जब लालू प्रसाद और राबड़ी देवी बिहार के मुख्यमंत्री बनी तो 1990 से लेकर 2005 तक जगदानंद सिंह लगातार 15 सालों तक बिहार सरकार में मंत्री रहे। साल 2009 में लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद उन्होंने अपने बेटे सुधाकर सिंह को छोड़ संघर्षों के साथी रहे अम्बिका यादव को राजद के टिकट पर चुनाव लगातार दो बार जितवाने में अहम भूमिका भी अदा की। ऐसी स्थिति में राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाले सुधाकर सिंह 2010 बीजेपी ज्वाइन कर लिया। रामगढ़ से चुनाव लड़े भी। लेकिन उनके विरोध में उनके पिता ही थे। यही नहीं राजद प्रत्याशी को जिताने के लिए जगदानंद सिंह रामगढ़ में कैंप कर दिया था। लिहाजा सुधाकर सिंह तब चुनाव हार गए थे।
समाजवाद की धरती पर पहली बार 2015 में भाजपा को अशोक सिंह के रूप में जीत मिली। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल ने जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर से पर दांव आजमाया और सुधाकर सिंह प्रतिकूल माहौल में यहां से चुनाव जीत गए। खैर लालू प्रसाद के सबसे करीबी जगदानंद सिंह के बेटे सुधाकर से को मंत्री बनाया गया है। लेकिन कुछ ही दिन के बाद उन्हे इस्तीफा देना पड़ा। अब एक बार फिर सुधाकर सिंह के लोकसभा चुनाव जीत जाने के बाद रामगढ़ में उपचुनाव हो रहा हैं।
इस बार रामगढ़ सीट पर होने वाले विधानसभा उप चुनाव में राजद के तरफ से अजीत सिंह प्रत्याशी बनाए गए हैं। वो बिहार राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के छोटे बेटे हैं। उनके बड़े भाई सुधाकर सिंह बक्सर से सांसद है। तो वहीं भाजपा ने समाजवाद की धरती पर पहली बार 2015 में जीत दिलाने वाले अशोक सिंह को चुनावी मैदान में उतारा हैं। वहीं जन सुराज ने सुशील कुमार सिंह कुशवाहा को टिकट दिया है।
पटना से रितिक की रिपोर्ट