बेतिया राज का मामला भारतीय इतिहास और कानून के लिहाज से बेहद दिलचस्प है। 127 साल तक चली इस जमींदारी पर लगे 'कोर्ट ऑफ वार्ड्स' को हटा कर बिहार सरकार ने कानून बनाया है। इसके साथ हीं बेतिया राज के कथित वारिश ने कोर्ट का रास्ता पकड़ लिया है।
बेतिया राज बिहार का एक विशाल जमींदारी क्षेत्र था। ब्रिटिश शासनकाल में जमींदारों को व्यापक शक्तियां प्राप्त थीं। बेतिया राज के जमींदार भी अपवाद नहीं थे। वे अपने क्षेत्र में राजाओं की तरह शासन करते थे।
ब्रिटिश काल का यह कानून किसी राजा या जमींदार की मृत्यु पर उसके वारिस की अनुपस्थिति में लागू होता था। बेतिया राज के आखिरी राजा के निधन के बाद से ही यह कानून लागू था।127 सालों तक बिहार सरकार वारिस की तलाश में रही। लेकिन कोई भी कानूनी वारिस नहीं मिला। इस दौरान बिहार सरकार इस संपत्ति का संचालन कर रही थी, लेकिन सिर्फ एक कस्टोडियन के रूप में।इस मामले में कई कानूनी जटिलताएं थीं, जिसकी वजह से मामला लंबा खिंचता रहा।
जब तक उत्तराधिकारी मिल न जाये, या बालिग न हो जाये, यह कानून लागू रहता था. इस कानून के तहत वारिस मिलने तक राज्य या जमींदारी की देखरेख ब्रिटिश सरकार के मैनेजर करते थे. बिहार में राज दरभंगा पर भी 1860 से 1880 के बीच की अवधि के लिए कोर्ट ऑफ वार्ड्स लगा था. जब राज के उत्तराधिकारी महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बालिग हो गये तो यह कोर्ट ऑफ वार्ड्स हट गया और उन्हें जमींदारी सौंप दी गई.राजा जुगल किशोर सिंह के समय में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बेतिया राज की राजशाही खत्म कर इसे जमींदारी में बदल दिया, मगर जमींदार के तौर पर ही इनका अनुवांशिक राजपाट चलता रहा. 1893 में महज 40 साल की उम्र में बेतिया राज के आखिरी महाराज हरेंद्र किशोर का निधन हो गया. उसके बाद अंग्रेजों ने उनकी बड़ी रानी शिवरतन कुंवर को बेतिया राज जमींदारी का जिम्मा सौंपा. मगर 1896 में शिवरतन कुंवर का भी निधन हो गया. ऐसे में अंग्रेजों ने हरेंद्र किशोर की दूसरी पत्नी जानकी कुंवर को उत्तराधिकारी मान उन्हें बेतिया राज की जमींदारी सौंप दी. जब से 24 साल की रानी जानकी कुंवर को जिम्मेदारी मिली, अंग्रेज उनकी प्रशासनिक क्षमता पर सवाल उठाने लगे. फिर वहां कोर्ट ऑफ वार्ड्स लग गया.यह बिल्कुल कानूनी प्रावधानों के विरुद्ध था, न वारिस नाबालिग था, न उत्तराधिकार की समस्या थी, न एक साल से राज चला रही रानी को राज चलाने के अयोग्य ठहराया गया. 1911 में रानी को मानसिक रूप से असंतुलित घोषित कर दिया. मगर तब तक रानी अपना दावा पेश करती रहीं.
इसके बाद रानी जानकी कुंवर इलाहाबाद के बेतिया राज के राजभवन में रहने चली गईं जहां उन्होंने शेष जीवन गुजारा.27 नवंबर, 1954 को रानी जानकी कुंवर का निधन हो गया तो बिहार सरकार ने दावा किया कि चूंकि अब बेतिया राज का कोई वारिस जीवित नहीं बचा है, ऐसे में राज की सारी चल और अचल संपत्ति को बिहार सरकार में अधिगृहित कर दिया जाना चाहिए. फिर शिवहर स्टेट के वारिसों ने दावा किया कि वे बेतिया राज से संबंधित हैं, अतः वही उत्तराधिकारी हैं. इस संबंध में 1961 में दो केस हुए. 1966 में पटना की अदालत ने सभी केसों को खारिज कर दिया. फिर वे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गये, जहां 1980 तक उनके मुकदमे चलते रहे. इस वजह से बेतिया राज का कोर्ट ऑफ वार्ड जारी रहा. इसके बाद इलाहाबाद के महाराजा भगवती शरण सिंह ने 1992 में पेश किया, जो खुद को रानी जानकी कुंवर का रिश्तेदार बताते थे. बनारस के लोअर कोर्ट, इलाहाबाद के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी वारिस माना,लेकिन बिहार सरकार ने उन फैसलों को लागू नहीं कराया.महाराजा भगवती शरण सिंह का भी कोविड के दौरान निधन हो गया.
महाराजा भगवती शरण सिंह के पुत्र अशोक सिंह ने बिहार सरकार के कानून पर सवाल खड़ा करते हुए राज्यपाल से गुहार लगाई है कि वे बेतिया राज के बिल पर दस्तखत नहीं करें. अशोक सिंह राज्यपाल के साथ विधानसभा के अध्यक्ष को भी पत्र लिखा है. महाराजा अशोक सिंह के मैनेजर आचार्य प्रियतोष ने कानून को असंवैधानिक बताया है। आचार्य प्रियतोष का कहना है कि अधिग्रहण का कानून तभ लाया जा सकता है जब कोई मामला कोर्ट में विचाराधीन न हो। बेतिया राज के बारिश को लेकर बनारस, इलाहाबाद समेत कई न्यायालयों में मामला विचाराधीन है।
महाराजा अशोक सिंह के मैनेजर आचार्य प्रियतोष ने कहा कि वे लोग एक से दो दिनों में हाईकोर्ट की शरण में जाएंगे. उन्होंने कहा कि सरकार ने कुछ लोगों के निहित स्वार्थ को पूरा करने के लिए कानून बना रही है. वह बेतिया राज का अस्तित्व खत्म करना चाहती है.