सेजिया से 'मिश्र जी' रूठ गइले हो रामा... कचौड़ी गली सून कर ... रैन बसेरा दुनिया छोड़ चले पंडित छन्नूलाल मिश्र
Pandit Chhannulal Mishra: "भूतनाथ की मंगल होरी..."उनकी आवाज में जब शिव होली खेलते, तो काशी की गलियों में रंग नहीं, भक्ति बरसती थी। आज वही मसान आपके इंतजार में अंतिम होली खेलने को तैयार है।

Pandit Chhannulal Mishra: आज बनारस की गलियों में ठहराव है। जैसे पंचगंगा की लहरें भी सुरों में डूबकर थम गई हों। पंडित छन्नूलाल मिश्र, ठुमरी के रसिया, सोहर के सच्चे साधक, चैती-कजरी के प्राण, आज अपनी अंतिम रागिनी गा कर अनहद में विलीन हो गए। भारतीय शास्त्रीय संगीत के पन्नों में ठुमरी, दादरा, कजरी, झूला, सोहर, होली, होरी, चैता, चैती जैसी राग रागिनियां के लिए आज निर्गुण गाने वाला दिवस बन गया। मिर्जापुर की हवा आज उनके अंतिम सांस से गुलजार है तो बनारस की गलियों में उनकी ठहरती हुई तान की खनक। आज वे गुलजार बनारस को अपनी स्मृतियों के फूलों से भरते हुए मसान की शांति में समाधिस्थ हो गए।
"सेजिया से सैयां रूठ गइले..." — जो कभी बनारसी चैती बन कर उनके कंठ से झरती थी, आज खुद उनके लिए गा रही है। कभी किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खाँ की संगत में संगीत का जतन किया, तो कभी बिहार के मुजफ्फरपुर में चतुर्भुज स्थान की कोठरी में खुद को साधा। गले से निकली हर तान, हर आलाप, जैसे माँ गंगा की लहरों पर बहती चली जाती थी।
"भूतनाथ की मंगल होरी..."उनकी आवाज में जब शिव होली खेलते, तो काशी की गलियों में रंग नहीं, भक्ति बरसती थी। आज वही मसान आपके इंतजार में अंतिम होली खेलने को तैयार है। आज उनकी होली, उनकी सोहर, उनका चैता, उनका झूला—सब कुछ हमारे मन में गूंज रहा है। मगर अफ़सोस, वो स्वर अब प्रत्यक्ष नहीं, केवल स्मृति बन कर बसी है।
जब उन्होंने निर्गुण को छेड़ा, तो ऐसा लगता था मानो कबीर खुद उनके कंठ से बोल रहे हों- "कंकरी चुनि-चुनि महल बनाया, लोग कहें घर मेरा..."आज वही महल, वही संसार उन्हें विदा कर रहा है। छन्नूलाल जी, आप रैन बसेरा की इस दुनिया को छोड़कर उस अनहद की ओर चले गए, जहाँ न साज है, न ताल, बस आत्मा की आवाज है।
आप तो अब उस मसान में हो, जहाँ ‘दिगंबर’ शिव की होली होती है, और जहाँ आपकी तान अब ब्रह्मा नाद में बदल गई है। आपका जाना केवल एक गायक का जाना नहीं है,यह एक युग का अंत है। आप भी आज मानो सबको रूठा कर चले गए। राग रागिनियां से श्रद्धांजलि पंडित जी!