Bihar freebies Scheme: बिहार में सत्ता की लड़ाई के बीच बिगड़ती आर्थिक सेहत, जानें फ्रीबी राजनीति के चलते क्या होगा असर

Bihar freebies Scheme: बिहार में 14 नवंबर को होने वाले चुनाव से पहले राजकोषीय संकट गहराता दिख रहा है। चुनावी वादों से खर्च बढ़ा है, जबकि पलायन और शराबबंदी से राजस्व घट रहा है।

Bihar freebies Scheme
बिहार की आर्थिक सेहत नाजुक- फोटो : social media

Bihar freebies Scheme: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में सियासी गर्मी अपने चरम पर है। एक ओर एनडीए विकास और कल्याण योजनाओं के वादों के साथ जनता के बीच है, तो दूसरी ओर महागठबंधन ने रोजगार और राहत के दावों के साथ अपना अभियान तेज कर दिया है। मगर इन राजनीतिक घोषणाओं के बीच एक सवाल लगातार उभर रहा है — क्या बिहार इन वादों का आर्थिक बोझ उठा पाएगा? नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट बताती है कि राज्य की वित्तीय स्थिति बेहद नाज़ुक है। पंजाब, हिमाचल प्रदेश और असम के साथ बिहार को भारत के सबसे कमजोर राज्यों में गिना गया है।

शराबबंदी ने घटाया राजस्व, योजनाओं ने बढ़ाया खर्च

राज्य की आय का बड़ा हिस्सा शराब बिक्री से आता था, लेकिन 2016 में शराबबंदी लागू होने के बाद से यह स्रोत पूरी तरह बंद हो गया। दूसरे राज्यों में जहां एक्साइज ड्यूटी राजस्व का दस से पंद्रह प्रतिशत योगदान देती है, वहीं बिहार में अब यह शून्य पर आ गया है। इसके साथ-साथ सरकार की कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर खर्च लगातार बढ़ता गया है। मुफ्त बिजली, पेंशन और नकद सहायता जैसी योजनाओं ने चुनावी माहौल तो गर्माया, पर खजाने पर भारी दबाव डाला है।

चुनावी रेवड़ी से बढ़ा वित्तीय संकट

चुनाव से पहले एनडीए और महागठबंधन दोनों ही गठबंधनों ने जनता को कई वादे दिए हैं। सरकार ने पेंशन बढ़ाने, महिलाओं को सहायता राशि देने और बिजली के बिल माफ़ करने जैसे कदमों की घोषणा की है। दूसरी ओर, महागठबंधन ने तो हर परिवार में नौकरी और महिलाओं को मासिक भत्ता देने तक का वादा किया है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अगर इन वादों को पूरा करने की कोशिश की गई तो बिहार का बजट कई गुना बढ़ जाएगा, जिससे राज्य पर कर्ज़ का बोझ असहनीय हो सकता है।

पलायन और कर-राजस्व की गिरावट

बिहार की अर्थव्यवस्था पर दूसरा सबसे बड़ा दबाव है लगातार बढ़ता पलायन। राज्य के लाखों मजदूर बेहतर रोज़गार की तलाश में दिल्ली, मुंबई, पंजाब और गुजरात जैसे राज्यों में काम कर रहे हैं। जब कामकाजी आबादी राज्य से बाहर चली जाती है, तो न सिर्फ खपत घटती है, बल्कि कर संग्रह और स्थानीय उत्पादन पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। ई-श्रम पोर्टल के अनुसार लगभग तीन करोड़ बिहारी श्रमिक राज्य के बाहर हैं। यह आंकड़ा बताता है कि बिहार की अर्थव्यवस्था अपने ही श्रमबल से कटती जा रही है।

आंकड़ों में बिहार की आर्थिक हकीकत

सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार का राजकोषीय घाटा पाँच से छह प्रतिशत के बीच है, जो राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है। राज्य की कुल आय में अपने कर राजस्व का हिस्सा तीस प्रतिशत से भी कम है। इतना ही नहीं, सरकार का लगभग सत्तर प्रतिशत खर्च सिर्फ वेतन, पेंशन और ब्याज भुगतान में चला जाता है। यह स्थिति बताती है कि विकास के लिए पूंजीगत निवेश की गुंजाइश बहुत सीमित रह जाती है।

केंद्र पर बढ़ती निर्भरता

बिहार की अर्थव्यवस्था अब मुख्यतः केंद्र सरकार के अनुदान और टैक्स हिस्सेदारी पर निर्भर है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों की तुलना में बिहार का स्वयं का राजस्व बेहद कम है। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक राज्य अपने कर संग्रह में सुधार नहीं करता और निवेश आकर्षित करने की नीतियाँ नहीं बनाता, तब तक वित्तीय आत्मनिर्भरता संभव नहीं है।

फ्रीबी राजनीति से निकलने की ज़रूरत

विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार को अब मुफ्त योजनाओं के बजाय दीर्घकालिक विकास की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। चुनावी लाभ के लिए नकद सहायता या मुफ्त बिजली देना तात्कालिक राहत तो देता है, पर दीर्घकाल में यह आर्थिक असंतुलन को बढ़ाता है। राज्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह रोजगार सृजन, शिक्षा सुधार और उद्योग विकास के रास्ते पर लौटे। तभी बिहार अपने वित्तीय संकट से बाहर निकल पाएगा।