Bihar First CM Shri Krishna Singh:नेहरू को चुनौती, राज्यपाल को विदाई, और बिहार में जननेता की ताजपोशी, पढ़िए श्रीबाबू की इंकलाबी दास्तान
Bihar First CM Shri Krishna Singh: आज़ादी के ठीक पहले और बाद की वो सियासी ज़मीन, जब देश की किस्मत लिखी जा रही थी, उस समय बिहार में एक ऐसी मिसाल बनी जिसने न केवल लोकतंत्र को नई दिशा दी...

Bihar First CM Shri Krishna Singh: आज़ादी के ठीक पहले और बाद की वो सियासी ज़मीन, जब देश की किस्मत लिखी जा रही थी, उस समय बिहार में एक ऐसी मिसाल बनी जिसने न केवल लोकतंत्र को नई दिशा दी बल्कि जननेता और तानाशाही के फर्क को भी दुनिया के सामने रख दिया। यह कहानी है बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह उर्फ़ श्रीबाबू की, जिनकी राजनीतिक दृढ़ता, प्रशासनिक ईमानदारी और नैतिक साहस ने जवाहरलाल नेहरू जैसे महानायक को भी फैसले पर पुनर्विचार के लिए मजबूर कर दिया।
1946 में कैबिनेट मिशन की सिफारिश पर हुए प्रांतीय चुनावों में जब बिहार में कांग्रेस को बहुमत मिला और श्रीबाबू मुख्यमंत्री बने, तब देश आज़ाद नहीं हुआ था। लेकिन 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता के सूरज के साथ संघीय शासन प्रणाली ने जन्म लिया और जयराम दास दौलतराम बिहार के पहले राज्यपाल बने। गांधीवादी विचारधारा के ध्वजवाहक दौलतराम, मुख्यमंत्री के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगे। वे मानते थे कि राज्य सरकार के हर निर्णय में राज्यपाल की भी सहमति होनी चाहिए।
यह स्थिति मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के लिए अस्वीकार्य थी। उनका विश्वास था कि लोकतंत्र की आत्मा जनता की निर्वाचित सरकार है और राज्यपाल केवल संवैधानिक प्रतिनिधि। जब पानी सिर से ऊपर चला गया, तो श्रीबाबू ने सीधे प्रधानमंत्री नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें राज्यपाल की कार्यशैली पर कड़ा ऐतराज़ जताते हुए इस्तीफे की धमकी दी।
इस पत्र ने कांग्रेस पार्टी में हड़कंप मचा दिया। यह वो दौर था जब नेहरू का कद सबसे ऊंचा था, लेकिन श्रीबाबू ने सार्वजनिक हित में समझौता नहीं किया। इस पत्र की गूंज सरदार पटेल तक पहुंची, जिन्होंने निर्वाचित मुख्यमंत्री का पक्ष लिया। अंततः नेहरू को झुकना पड़ा और मात्र पांच माह में राज्यपाल जयराम दास को हटा दिया गया।
श्रीकृष्ण सिंह न केवल राजनीतिक तौर पर मज़बूत थे, बल्कि भावनात्मक रूप से भी एक संवेदनशील नेता थे। उन्होंने ललित नारायण मिश्र जैसे युवा नेता की प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें केंद्र में स्थान दिलवाया। प्रधानमंत्री नेहरू को दो बार पत्र लिखकर उन्हें उप मंत्री बनाने की सिफारिश की।
बिहार के नवादा ज़िले के खनवां गांव में जन्मे श्रीबाबू न केवल विद्वान थे, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी सेनानी भी रहे। नमक सत्याग्रह के दौरान खौलते पानी में झुलसने के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी। उनके हाथों और छाती पर जलने के निशान, उनके संघर्ष की अमिट छाप बन गए।
उन्होंने जमींदारी प्रथा को खत्म कर सामाजिक न्याय की नींव रखी। दलितों को बाबा बैद्यनाथ मंदिर में प्रवेश दिला कर समाज में समता की लहर उठाई। औद्योगिकीकरण के बीज बोए बरौनी, सिंदरी, हटिया, मोकामा पुल ये सब उन्हीं के शासन की देन है।
श्रीकृष्ण सिंह केवल एक मुख्यमंत्री नहीं थे, वे लोकतंत्र की आत्मा के प्रहरी थे। उन्होंने दिखा दिया कि अगर नेतृत्व ईमानदार और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध हो, तो सत्ता की सबसे बड़ी ताकत भी झुक सकती है।