धर्म कथा भाग 3: राम जी का अद्भुत विवेक और वैराग्य एवं तत्त्वज्ञान के लिए उनकी तीव्र जिज्ञासा देखकर विश्वामित्र राम से बोले हे राम। तुम तो तत्त्वज्ञान के योग्य अधिकारी हो, तुमको ज्ञान प्राप्त करने में कुछ भी आयास और समय नहीं लगेगा। तुम्हारा अज्ञान अत्यन्त क्षीण हो गया है, वसिष्ठ के उपदेश मात्र से ही अवशिष्ट अज्ञान भी सर्वथा नष्ट होकर तुमको आत्मज्ञान का प्रकाश होगा और तुम जीवन्मुक्त होकर इस संसार में जीवन व्यतीत करोगे।
व्यासपुत्र शुकदेव को ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ
व्यासपुत्र शुकदेव के समान तुम ज्ञान के उत्तम अधिकारी हो और उनके ही समान तुमको क्षणभर में ज्ञान हो जाएगा। यहीं राम ने पूछा-मुनिवर। शुकदेव को ज्ञान प्राप्त होने की कथा क्या है? कृपापूर्वक आप मुझको सुनाइए। तब विश्वामित्र बोले-व्यासपुत्र शुकदेव सभी शास्त्रों में निपुण थे। एक समय उनके मन में यह विचार आया कि मैंने सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लिया, किन्तु अभी तक मुझको परमानन्द का अनुभव नहीं हुआ और न यही ज्ञात हुआ कि यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ है और कैसे इसकी निवृत्ति होगी। यह सोचकर कि उनके पिता वेदव्यास सर्वज्ञ हैं वे ही उनकी शङ्काओं की निवृत्ति करेंगे। शुकदेव अपने पिता के पास गए और उनके समक्ष उन्होंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। वेदव्यास ने उनको कहा-पुत्र! मैं सर्वतत्त्वज्ञ नहीं हूँ, राजा जनक सर्वतत्त्वज्ञ हैं। तुम उनके पास जाओ। वे ही तुम्हारी शंकाओं की निवृत्ति करेंगे।
राजा जनक के दरवाजे 7 दिनों तक इंतजार करना।
शुकदेव अपने पिता की आज्ञा पाकर मिथिला नगरी पहुँचे और राजा जनक के द्वार पर आकर उन्होंने द्वारपाल से राजा से मिलने का आशय प्रकट किया। द्वारपाल ने जाकर राजा से कहा कि द्वार पर शुकदेव खड़े हैं और आपसे मिलना चाहते हैं। जनक समझ गए कि शुकदेव तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए यहाँ आए हैं। कुछ सोचकर उन्होंने कहा-खड़े रहने दो। शुकदेव सात दिन तक द्वार पर ही खड़े रहे। आठवें दिन राजा ने पूछा-शुकदेव खड़े हैं या चले गए? द्वारपाल ने कहा-महाराज। ये तो उसी प्रकार निश्चल और निस्तब्ध खड़े है जैसे कि आनेवाले दिन थे। राजा ने कहा-उनको ले आओ और अन्तःपुर में महारानियों और सुन्दरियों के मध्य उनके रहने की व्यवस्था कर दो जिससे कि वे उत्तम भोजन, सुख-भोग आदि प्राप्त कर सकें। शुकदेव इस परिस्थिति में भी सात दिन रहे, किन्तु उनको वहाँ रहने से न हर्ष हुआ और न कोई शांक हुआ। न किसी वस्तु से घृणा हुई और न किसी वस्तु के लिए इच्छा हुई। राजा जनक को शुकदेव के व्यवहार को सभी सूचनाएँ यथासमय मिलती रहीं, तब उन्होंने आठवें दिन शुकदेव को अपने पास बुलवाया। शुकदेव ने राजा जनक को सादर प्रणाम किया। जनक ने कहा-शुकदेव! आप किस लिए यहाँ पर आए हैं?
शुकदेव का प्रश्न और राजा जनक का जवाब।
शुकदेव बोले- राजन्। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह संसार कैसे उत्पन्न होता है? किस आधार पर स्थित है? और कैसे इसका क्षय होता है? क्या इस संसार से बाहर निकलकर शान्त और निश्चल आनन्द में स्थित रहने का भी कोई उपाय है? राजा बोले-शुकदेव! यह संसार अपने चित्त में ही उत्पन्न होता है और चित्त के निःसंकल्प, निर्वेद अथवा निस्फुरण होने से क्षीण होता है। चित्त के संकल्प में हो इसकी स्थिति है। दृश्य के लिए जब तक मन में वासना है तभी तक संसार का अनुभव होता है। वासना का सर्वधा क्षय होने से ही आत्मानुभव होकर परमानन्द में स्थिति होती है। यह सुनकर शुकदेव मिथिला से सुमेरु पर्वत पर चले गए और वहाँ जाकर निर्विकल्पक समाधि का अनुभव करके परमपद को प्राप्त हुए अथवा निर्वाण-पद में स्थित हुए।
साभार...योगवाशिष्ठ:
महारामयणम