कोसी का मधेपुरा,निखिल मंडल और चंद्रशेखर आमने सामने, मंडल बनाम यादववाद की सियासत में भारी कौन, जानिए

Bihar Politics: सियासी लहर यहाँ यादवों के इर्द-गिर्द सिमटी नज़र आती है। सामाजिक इन्साफ़ की अलख जगाने वाले बीपी मंडल की इस पाक धरती पर आज एक अजीब विडंबना देखने को मिलती है...

Mandal vs Yadavism
मंडल बनाम यादववाद की सियासत में भारी कौन- फोटो : social Media

Bihar Politics: बिहार के मिथिलांचल की सरज़मीन, जहाँ कोसी नदी का आंचल फैला है, वो है मधेपुरा ज़िला। यह ज़िला अपनी विशिष्ट सियासी नब्ज़ और गहरे जातीय समीकरणों के लिए जाना जाता है। ये सिर्फ़ उस अज़ीम सियासी रहनुमा बी.पी. मंडल की जन्मस्थली नहीं, जिन्होंने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए नौकरियों में आरक्षण की पुरज़ोर पैरवी की थी, बल्कि यहाँ की चुनावी फ़िज़ा में एक पुरानी कहावत की गूँज आज भी सुनाई देती है: "रोम पोप का, मधेपुरा गोप का"। कोसी की बाढ़ जितनी तबाही लाती है, उतना ही यहाँ का इम्तिख़ाब भी दिलचस्प और नाटकीय होता है। हर सियासी लहर यहाँ यादवों के इर्द-गिर्द ही सिमटी नज़र आती है। सामाजिक इन्साफ़ की अलख जगाने वाले बीपी मंडल की इस पाक धरती पर आज एक अजीब विडंबना देखने को मिलती है—एक तरफ़ जहाँ मंडलवाद पूरे मुल्क में पिछड़ों की फ़तेह का पासबाँ बना, वहीं आज की तारीख़ में इस अज़ीम ख़ानदान का कोई भी रुक्न हिन्दुस्तान के किसी भी क़ानूनसाज़ इदारा का हिस्सा नहीं है।

सन् 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में मधेपुरा की सियासी जंग एक बार फिर काबिले-ग़ौर होने वाली है। इस बार बीपी मंडल के पोते निखिल मंडल (जदयू) और मौजूदा विधायक चंद्रशेखर (राजद) के दरमियान एक सख्त मुक़ाबले की उम्मीद है। जदयू ने निखिल को मैदान में उतारने का मनसूबा बनाया है, जिनका सबसे बड़ा हथियार उनके दादा की अज़ीम विरासत और चंद्रशेखर के लिए अवामी नाराज़गी है। चंद्रशेखर 2015, 2020  में विधायक चुने गए, मगर उन पर इलाक़े की लापरवाही और "हिंदू मज़हबी किताबों के फ़ुज़ूल प्रलाप" में डूबे रहने का इल्ज़ाम लगता रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव में, जदयू ने मधेपुरा की एक विधानसभा सीट को छोड़कर, पाँच विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की, जो चंद्रशेखर के ख़िलाफ़ अवामी ग़ुस्से का इजहार  है। लोगों का कहना है कि मंत्री होते हुए भी चंद्रशेखर ने इलाक़े की तरक़्क़ी पर ध्यान नहीं दिया और वह सिर्फ़ देवी-देवताओं पर  बयानबाज़ी में मसरूफ़ रहे। वहीं, निखिल मंडल लगातार इलाक़े में फ़ुर्ती से सक्रिय देखे जा रहे हैं, जो उनकी जमीनी पकड़ को वाज़ेह करता है।

लालू-शरद का सियासी अखाड़ा और पप्पू यादव का 'यादव-प्रधान' खेल

मधेपुरा सियासी तौर पर दो साबिक़ दोस्त से दुश्मन बने लालू प्रसाद यादव और शरद यादव के जंग का मैदान होने के लिए भी मशहूर है। ताज्जुब की बात ये है कि दोनों रहनुमाओं का इस इलाक़े से कोई क़दीमी ताल्लुक़ नहीं था। लालू बिहार के गोपालगंज ज़िले से हैं, जबकि शरद यादव की जड़ें मध्य प्रदेश से जुड़ी हैं। बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू ही शरद को मधेपुरा लाए थे, लेकिन बाद में दोनों एक-दूसरे के कट्टर मुख़ालिफ़ बन गए। उनके इस झगड़े की इन्तेहा 1999 में शरद यादव के हाथों लालू की शर्मनाक शिकस्त के तौर पर सामने आई, जिसने बिहार की सियासत में एक नया बाब्त जोड़ा।

इस यादव-प्रधान ड्रामे में और भी चार चाँद लगाते हैं पप्पू यादव, जो विधायक बने  और अक्सर अपनी सियासी ताक़त का प्रदर्शन करते हैं। दिलचस्प पहलू यह है कि मधेपुरा ने कभी भी इन तीनों यादव रहनुमाओं में से किसी को भी 'अपना' नहीं माना, जबकि इन सभी को यहाँ कभी न कभी हार का सामना करना पड़ा है।

मधेपुरा का अजूबा चुनावी रिकॉर्ड और भाजपा का चैलेंज

मधेपुरा 1981 में ज़िला बना, हालाँकि यह 1845 से एक अनुमंडल था। यह मधेपुरा लोकसभा सीट के तहत आने वाले छह विधानसभा हल्क़ों में से एक है। इस इन्तेख़ाबी हल्क़े का एक अनोखा रिकॉर्ड है—1957 में अपनी तश्कील के बाद से, वोटरों ने सभी 17 विधानसभा चुनावों में सिर्फ़ यादव बिरादरी के रहनुमाओं को ही चुना है। इसी तरह की जातीय वफ़ादारी इस लोकसभा सीट तक भी फैली हुई है, जहाँ 1967 और 1968 के पहले दो चुनावों को छोड़कर, तब से सिर्फ़ यादव उम्मीदवार ही कामयाब हुए हैं।

एक और दिलचस्प बात यह है कि भाजपा इस यादव-बहुल सीट पर कभी नहीं जीत पाई है और यहाँ लगभग गैर-मुताल्लिक़ बनी हुई है। कांग्रेस पार्टी चार बार जीती है, आख़िरी बार 1985 में, जब बिहार में उसका तेज़ ज़वाल शुरू हुआ था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनता पार्टी, जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) ने दो-दो बार जीत हासिल की है। एक निर्दलीय उम्मीदवार ने एक बार जीत हासिल की है, और लालू की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने चार बार जीत हासिल की है। राजद ने फ़िलहाल जीत की हैट्रिक बना रखी है, जिसमें चंद्रशेखर यादव 2015, 2020  में जीत हासिल कर चुके हैं।

इस इन्तेख़ाबी हल्क़े में यादव वोटरों का दबदबा है, जो कुल वोटरों का तक़रीबन 32 फ़ीसद हैं। अनुसूचित जाति के वोटर तक़रीबन 17.51 फ़ीसद हैं, जबकि मुस्लिम वोटर तक़रीबन 11.1 फ़ीसद हैं। देहाती वोटर 88.78 फ़ीसद और शहरी वोटर 11.23 फ़ीसद हैं।

बहरहाल 2025 के विधानसभा चुनाव के लिए चंद्रशेखर और निखिल के दरमियान लड़ाई तय मानी जा रही है। निखिल के पास ख़ानदानी विरासत के साथ लगातार इलाक़े में सरगर्म रहने का फ़ायदा है, तो वहीं चंद्रशेखर को एंटी-इनकंबेंसी का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मधेपुरा इस बार अपने पुराने चुनावी रुझान को तोड़कर कोई नई राह चुनेगा, या फिर जातीय समीकरणों की बिसात पर वही पुरानी कहानी दोहराई जाएगी।