Bihar Vidhansabha Chunav 2025: सियासी चक्रव्यूह ने बढ़ाई तेजस्वी की टेंशन, पीके से लेकर ओवैसी और साथी कांग्रेस की चाल से राजद में छटपटाहट, मुस्लिम यादव समीकरण बिगड़ने से बदलेगी सियासी तस्वीर?जानिए कैसे
Bihar Vidhansabha Chuराजद का 'मुस्लिम यादव' समीकरण टूटने पर बिहार की राजनीतिक स्थिति में बदलाव आ जाएगा। तेजस्वी का टेंशन पीके ओवैसा के साथ हीं कांग्रेस ने भी बढ़ा दिया है।मुस्लिम समुदाय से अब तक केवल एक मुख्यमंत्री बने हैं, ये सवाल भी तैरने लगा है।

Bihar Vidhansabha Chunav 2025: बिहार की राजनीति में राष्ट्रीय जनता दल का ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण दशकों से उसकी ताकत का आधार रहा है। इस समीकरण ने राजद को न केवल बिहार की सत्ता तक पहुंचाया, बल्कि उसे एक मजबूत सामाजिक गठबंधन के रूप में स्थापित किया। हालांकि, हाल के वर्षों में इस गठजोड़ में दरार की खबरें सामने आ रही हैं, जिसके चलते बिहार के आगामी विधानसभा चुनावों की तस्वीर प्रभावित हो सकती है। मुस्लिम वोटों को लेकर कई राजनीतिक दलों और नेताओं की दावेदारी बढ़ रही है, और इस समुदाय से अब तक केवल एक मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर साल 1973-75 का उभरना इस चर्चा को और गर्म करता है।
राजद की स्थापना 1997 में लालू प्रसाद यादव ने की थी, लेकिन इसका आधार 1990 के दशक में ही बन गया था, जब लालू ने यादव और मुस्लिम समुदायों को एकजुट किया। बिहार में यादवों की आबादी करीब 14.26 फीसदी और मुस्लिमों की 16.9 फीसदी है। इस गठजोड़ ने राजद को 1990 से 2005 तक सत्ता में बनाए रखा और बाद में भी उसे विपक्ष में मजबूत स्थिति दी।
‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजद ने हमेशा मुस्लिम समुदाय को विधानसभा और लोकसभा चुनावों में टिकट देकर प्रतिनिधित्व दिया। इसके अलावा, लालू और उनके बेटे तेजस्वी यादव ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों को उठाकर मुस्लिम वोटरों का भरोसा जीता। लेकिन अब इस समीकरण में सेंध लगती दिख रही है।
हाल के कुछ वर्षों में मुस्लिम वोटरों के बीच राजद के प्रति असंतोष की खबरें सामने आई हैं। इसका एक प्रमुख कारण मुस्लिम समुदाय को पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व न मिलना माना जा रहा है। एक एक्स पोस्ट में @AbdurRahman_IPS ने लिखा, “राजद के कोटे में मिले 26 सीटों में से 10 यादवों को मिले, जबकि 17 फीसदी मुस्लिम आबादी को केवल 2 सीटें दी गईं।‘मुस्लिम-यादव’का मतलब अब ‘मल्लाह-यादव’ हो गया है।” यह पोस्ट मुस्लिम समुदाय के बीच बढ़ती नाराजगी को दर्शाती है।
इसके अलावा राजद पर यह आरोप भी लग रहा है कि वह मुस्लिम समुदाय के लिए केवल वोट बैंक की राजनीति करती है, लेकिन उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए। शिक्षा, रोजगार, और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर मुस्लिम समुदाय की अपेक्षाएं पूरी नहीं होने से वे अन्य विकल्पों की ओर देख रहे हैं।@nitinkyadav01 ने एक पोस्ट में लिखा, “पिछले कुछ दिनों से बिहार का मुसलमान वोटर राजद से नाराज सा चल रहा है। उसे लगता है कि राजद का ‘M’ समीकरण बस कहने को है। जहां विकल्प मिल रहे, वहां वह AIMIM, पप्पू यादव, या हिना शहाब जैसे नेताओं की ओर जा रहा है।”
‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण में दरार का फायदा उठाने के लिए कई राजनीतिक दल और नेता सक्रिय हो गए हैं। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन असदुद्दीन ओवैसी की अगुवाई वाली AIMIM ने 2020 के विधानसभा चुनाव में बिहार के सीमांचल क्षेत्र में 5 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में AIMIM की बढ़ती पैठ राजद के लिए खतरे की घंटी है।
महागठबंधन में राजद की सहयोगी कांग्रेस भी मुस्लिम वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस ने हाल के वर्षों में मुस्लिम नेताओं को अधिक जिम्मेदारी दी है और सामाजिक न्याय के मुद्दों को जोर-शोर से उठाया है।कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावारु ने बिहार में महीने भर रहने के बावजूद लालू यादव से नहीं मिले. कांग्रेस के सहप्रभारी शाहनवाज आलम भी अलग ही राह पर हैं और बिहार में मुस्लिम डिप्टी सीएम बनाने की मांग उठा रहे हैं. इसके अलावा युवा नेता कन्हैया कुमार बिहार की सियासत में सक्रिय हो गए हैं और चंपारण से पदयात्रा शुरू कर दी है. आरजेडी बिहार में कन्हैया के एक्टिव होने पर अभी तक अपना वीटो पावर लगा रखा था, लेकिन अब कांग्रेस ने लालू यादव के परवाह किए बगैर उन्हें सक्रिय कर दिया है. कांग्रेस ने जिस तरह नजरें बदली हैं, वो तेवर आरजेडी को परेशान कर रहे हैं. इतना ही नहीं कांग्रेस नेता साफ कह रहे हैं कि बिहार में कोई छोटा और बड़ा भाई नहीं है बल्कि बराबर हैं.
सत्तारूढ़ गठबंधन, खासकर नीतीश कुमार की जद(यू), मुस्लिम वोटों का एक हिस्सा अपनी ओर खींचने की कोशिश में है। नीतीश ने ‘पसमांदा’ (पिछड़े) मुस्लिमों पर फोकस करते हुए कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू की हैं। वहीं, भाजपा भी ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के तहत मुस्लिम वोटरों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है, हालांकि उसकी सफलता सीमित रही है।पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी, हिना शहाब (पूर्व सांसद मुहम्मद शहाबुद्दीन की पत्नी), और अन्य छोटे दल भी मुस्लिम वोटरों को आकर्षित करने में जुटे हैं।
बिहार की राजनीति में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व हमेशा चर्चा का विषय रहा है। 17 फीसदी आबादी के बावजूद, इस समुदाय से अब तक केवल एक मुख्यमंत्री, अब्दुल गफूर साल 1973-75, उभरे । गफूर कांग्रेस के नेता थे लेकिन उसके बाद से कोई मुस्लिम नेता इस पद तक नहीं पहुंच सका।
यह मुद्दा मुस्लिम वोटरों के बीच असंतोष का एक बड़ा कारण है। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राजद ने मुस्लिम नेताओं को बड़े पदों पर लाने के बजाय यादव नेतृत्व को प्राथमिकता दी, जिससे समुदाय में निराशा बढ़ी।
अगर ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण पूरी तरह बिखरता है, तो बिहार की सियासी तस्वीर नाटकीय रूप से बदल सकती है। मुस्लिम वोटों का बंटवारा राजद की सीटों की संख्या को सीधे प्रभावित करेगा। खासकर सीमांचल और मिथिलांचल जैसे क्षेत्रों में AIMIM और कांग्रेस उसका वोट बैंक छीन सकते हैं।राजद और कांग्रेस के बीच मुस्लिम वोटों को लेकर प्रतिस्पर्धा महागठबंधन की एकता को कमजोर कर सकती है। मुस्लिम दबदबे वाले सीमांचल के इलाके की सीटों पर ओवैसी का सियासी आधार है और बिहार में मुस्लिम वोट आरजेडी का परंपरागत रहा है, लेकिन AIMIM के चलते तेजस्वी यादव का गेम गड़बड़ाता हुआ नजर आ रहा है.
बिहार के विधानसभा उपचुनावों में ओवैसी अपनी उपस्थिति से आरजेडी का खेल गोपालगंज सीट पर बिगाड़ चुके हैं. इस बार के चुनाव में दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर ओवैसी ने महागठबंधन के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारने की तैयारी की है, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम कैंडिडेट होंगे. मुस्लिम प्रत्याशी के उतारने से सबसे ज्यादा चुनौती आरजेडी की बढ़ने वाली है. इस तरह ओवैसी के उतरने से तेजस्वी का समीकरण फिर एक बार न बिगड़ जाए.
अब बात प्रशांत किशोर की तो प्रशांत किशोर मानते हैं कि मुसलमान और यादव इन दोनों तबके के लोगों को न राजनीति में उचित प्रतिनिधित्व मिला और न उनकी समस्याओं की ओर ही किसी ने खास ध्यान दिया। दोनों तबके सिर्फ लालू और नीतीश की पार्टियों के चुनावी टूल बन कर रह गए। उनकी पार्टी सबसे पहले विधानसभा चुनाव में इन दोनों तबके के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व देगी। यानी टिकट बंटवारे में इनका खास ख्याल रखा जाएगा। मुसलमानों के बारे में तो उन्होंने घोषणा भी कर दी है कि 243 में 75 सीटों पर सिर्फ मुस्लिम कैंडिडेट उतारे जाएंगे। इससे तेजस्वी की टेंशन बढ़ सकती है।
AIMIM जैसी पार्टियां मुस्लिम वोटों को एकजुट कर नया सामाजिक गठजोड़ बना सकती हैं, जैसे ‘मुस्लिम-पिछड़ा’ या ‘मुस्लिम-दलित’ गठबंधन।
मुस्लिम वोटों का बंटवारा जद(यू)-भाजपा गठबंधन के लिए फायदेमंद हो सकता है, क्योंकि विपक्ष का वोट बैंक कमजोर होगा।राजद के सामने अब अपने पारंपरिक वोट बैंक को बचाने की बड़ी चुनौती है। तेजस्वी यादव ने हाल के महीनों में सामाजिक न्याय और रोजगार जैसे मुद्दों को उठाकर युवा और मुस्लिम वोटरों को लुभाने की कोशिश की है।बहरहाल बिहार की सियासत में ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण का बिखरना न केवल राजद के लिए, बल्कि पूरे विपक्ष के लिए एक बड़ा झटका हो सकता है। मुस्लिम वोटों पर बढ़ती दावेदारी और समुदाय से केवल एक मुख्यमंत्री का इतिहास इस बात को रेखांकित करता है कि बिहार की राजनीति में बदलाव की हवा चल रही है। आगामी विधानसभा चुनाव इस बात का फैसला करेंगे कि क्या राजद अपने पारंपरिक गठजोड़ को बचा पाएगा, या बिहार में नया सियासी समीकरण उभरेगा।