Pitru Paksha: श्राद्ध का महत्व भारतीय संस्कृति में अत्यधिक गहरा है। इसे एकान्त में, गुप्त रूप से करने की सलाह दी जाती है। यदि श्राद्ध के समय पिण्डदान पर दुष्ट मनुष्यों की दृष्टि पड़ती है, तो यह पितरों तक नहीं पहुँचता। इसके अलावा, श्राद्ध किसी की भूमि पर नहीं करना चाहिए, क्योंकि जंगल, पर्वत, पुण्यतीर्थ और देवमंदिर पर किसी का स्वामित्व नहीं होता। ये स्थान पवित्र माने जाते हैं, और इन्हें श्राद्ध के लिए उपयुक्त माना जाता है। पितरों की तृप्ति केवल ब्राह्मणों के माध्यम से ही होती है, इसलिए श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को निमंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध करता है, तो उसके घर पितर भोजन नहीं करते और श्राप देकर लौट जाते हैं। इस प्रकार, ब्राह्मणहीन श्राद्ध करने से मनुष्य महापापी हो जाता है, जैसा कि पद्मपुराण, कूर्मपुराण और स्कन्दपुराण में उल्लेखित है।
श्राद्ध का महत्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है; यह पितरों की प्रसन्नता के माध्यम से मनुष्यों को पुत्र, धन, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख और मोक्ष प्रदान करता है। श्राद्ध का आयोजन चाहे किसी भी समय हो, तीर्थ में पहुँचते ही मनुष्य को स्नान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिए। शुक्ल पक्ष की अपेक्षा कृष्ण पक्ष और पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्ण श्राद्ध के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। इस विषय में मनुस्मृति भी मार्गदर्शन करती है कि श्राद्ध का समय और तरीका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, सायंकाल में श्राद्ध करना वर्जित है क्योंकि इसे राक्षसी बेला माना जाता है। चतुर्दशी को श्राद्ध करने से कुप्रजा अर्थात निन्दित सन्तान पैदा होती है। हालांकि, यदि किसी व्यक्ति के पितर युद्ध में शस्त्र से मारे गए हों, तो वे चतुर्दशी को श्राद्ध करने से प्रसन्न होते हैं। यह विशेष रूप से उन व्यक्तियों के लिए मान्य है जो स्वयं भी युद्ध में भागी होते हैं।
रात्रि में श्राद्ध करना भी निषिद्ध है, इसे राक्षसी समय माना जाता है। दिन के दोनों संध्याओं में भी श्राद्ध का आयोजन नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें भाग में जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम 'कुतप' है, जिसमें पितरों के लिए किया गया दान अक्षय माना जाता है। इस कुतप, खड्गपात्र, कम्बल, चाँदी, कुश, तिल, गौ और दौहित्र को विशेष महत्व दिया गया है। श्राद्ध में तीन वस्तुएँ अत्यंत पवित्र मानी जाती हैं: दौहित्र, कुतपकाल और तिल। इसके साथ ही, श्राद्ध में तीन बातें अत्यंत प्रशंसनीय हैं: बाहर और भीतर की शुद्धि, क्रोध न करना, तथा जल्दबाजी न करना। ये सभी बातें मनुस्मृति, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण और विष्णुपुराण में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं। इस प्रकार, श्राद्ध का आयोजन करते समय उपरोक्त नियमों और मार्गदर्शनों का पालन करना न केवल पितरों की तृप्ति के लिए आवश्यक है, बल्कि यह व्यक्ति की अपनी आध्यात्मिक और सामाजिक स्थिति को भी सुदृढ़ करता है।