AURANGABAD : गुलाम भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद कराने की पहली लड़ाई 1857 में नही लड़ी गई। इस लड़ाई को इतिहास की किताबों में सिपाही विद्रोह कहा जाता है। भारत के तमाम देशवासी भी इसी बात को जानते और मानते भी हैं। लेकिन अब हम जो कह रहे है, वह बात आपकी जानकारी को पलट कर रख देगी। हम सिर्फ दावा ही नही कर रहे बल्कि पुख्ता प्रमाण और होशोहवास के साथ यह कह रहे है कि भारत की आजादी की पहली लड़ाई 1857 में नही बल्कि इससे 87 साल पहले 1770 ईस्वी में शुरू हुई थी, जो पूरे 16 साल तक यानी 1786 ईस्वी तक चली थी। इस लड़ाई के नेतृत्वकर्ता को कई छोटी रियासत के राजाओं का भी साथ मिला था। तो चलिए हमारे साथ और जानिए किसने 1857 की क्रांति के पहले जंग ए आजादी का पहला बिगूल फूंका था।
1857 की क्रांति के 87 साल पहले राजा नारायण सिंह ने फूंका था जंग ए आजादी का बिगूल-
दरअसल बिहार के औरंगाबाद जिले के पवई रियासत के राजा नारायण सिंह ने अंग्रेजों के विरूद्ध जंग ए आजादी का बिगूल 1857 की क्रांति के 87 साल पहले 1786 में फूंका था। पवई रियासत के इस राजा को ब्रिटिश हुकूमत का प्रथम शत्रु भी कहा गया है। प्रथम शत्रु के अलंकरण का विभूषण भी उन्हे अंग्रेजों ने ही प्रदान किया है, जिसकी अंग्रेजों द्वारा लिखित किताब में भी चर्चा की गई है। जाता है। राजा नारायण सिंह अंग्रेजों के विरूद्ध सबसे पहले जंग का ऐलान करने के बाद से जीवनपर्यंत 1786 ईस्वी तक ब्रिटिश हुकूमत से डटकर लोहा लेते रहे। हालांकि आजाद भारत के इतिहासकारों ने उनके साथ न्याय नहीं किया। यही कारण है कि इतिहास के पन्नों में उनकी जंग का कही कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है।
ब्रिटिश हुकूमत का पहला शत्रु
रेजीनल्ड हैंड ने अपनी पुस्तक में राजा नारायण सिंह को कहा है, ब्रिटिश हुकूमत का पहला शत्रु-वैसे अंग्रेज लेखक और शाहाबाद के तत्कालीन कलक्टर रेजीनल्ड हैंड ने 1781 में लिखी अपनी पुस्तक ‘अर्ली इंगलिश एडमिनिस्ट्रेशन’ के पृष्ठ संख्या 84 पर ‘पावरफुल जमींदार्स’ शीर्षक में राजानारायण सिंह को ब्रिटिश हुकुमत का पहला शत्रु करार दिया है। वही फारसी लेखक शैरून मौता खरीन द्वारा लिखित फारसी इतिहास और सर्वे सेटलमेंट, गया में भी उनकी इसी रूप में चर्चा है। साथ ही इतिहासकार केके दत्त ने भी प्राचीन भारतीय इतिहास में उनका इसी रूप में उल्लेख किया है। इन पुस्तकों में लिखी इबारत आज भी इस बात को चीख-चीख कर कह रही है कि राजनारायण सिंह ही अंग्रेजों के प्रथम शत्रु रहे हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन के बिहार के इतिहास में राजा नारायण सिंह पहले पन्ने पर-वैसे इतिहासकार माने या न माने पर हकीकत यही है कि राष्ट्रीय आंदोलन के बिहार के इतिहास में राजा नारायण सिंह पहले पन्ने पर हैं लेकिन लगता है कि वह पन्ना ही गायब है और पहला स्वतंत्रता सेनानी उपेक्षित है। लोगों की आम धारणा है कि राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ 1857 के सिपाही विद्रोह से हुआ लेकिन सच्चाई तो यह है कि जिस दिन 1764 ईस्वी में बक्सर के मैदान में ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली के शाह आलम, बिहार-बंगाल के नवाब मीर कासिम एवं अवध के नवाब शुजाउद्दौला के संयुक्त मोर्चा को हरा दिया, उसी दिन भारत गुलाम हो गया और उसी दिन से राष्ट्रीय आंदोलन का शुभारंभ भी हुआ जो अंग्रेजों के साथ मराठा एवं सिख युद्ध, हैदरअली एवं टीपू सुल्तान, चेत सिंह, राजा नारायण सिंह तथा राजा रणजीत सिंह के विद्रोह के रूप में देखने को मिलता है।
बिहार में राष्ट्रीय आंदोलन के शुभारंभ का श्रेय राजा नारायण सिंह को
बिहार में राष्ट्रीय आंदोलन के शुभारंभ का श्रेय सिरिस-कुटुम्बा के जमींदार पवई के राजा नारायण सिंह को जाता है। इनके चाचा विष्णु सिंह ने पलासी युद्ध के समय पलामू राज से मिलकर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला का साथ दिया था। उन्होने ही मीर कासिम एवं अवध के नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर के युद्ध में चेत सिंह के साथ मिलकर साथ दिया था। चेत सिंह ने हार स्वीकार नहीं किया और वे अंग्रेजों का सदा विरोध करते रहे। इनके ससुर टेकारी के राजा पीताम्बर सिंह, पवई के राजा विष्णु सिंह एवं युवराज नारायण सिंह के मित्र थे। विष्णु सिंह पवई राज के बड़े विजेता थे। उन्हे पचवन क्षेत्र जगदीशपुर रियासत से दहेज में मिला था। राजा विष्णु सिंह के बाद 1764 ईस्वी में उनके भतीजे राजा नारायण सिंह पवई की गद्दी पर आसीन हुए और उन्होने अंग्रेज विरोधी रूख अख्तियार किया।
विरासत में मिली थी राजा नारायण सिंह को राष्ट्रीयता
राजा नारायण सिंह को राष्ट्रीयता विरासत में मिली थी और उन्होने अंग्रेजों की शोषण नीति एवं मालगुजारी वसूली की ठेका पद्धति का विरोध किया क्योंकि इससे जमींदार रैयत तथा आमजनों का मनमाना शोषण करते थे। वे बचपन से ही साहसी थे और उन्होने 1764 ईस्वी में ही विष्णु सिंह की अनुपस्थिति में ब्रिटिश सरकार के नायब मेंहदी हुसैन को खदेड़कर अपने औरंगाबाद स्थित दुर्ग(शाहपुर कचहरी) की रक्षा की थी। वर्तमान में इस दुर्ग में रामलखन सिंह यादव कॉलेज चल रहा है। 1765 ईस्वी में उन्हे सिरिस-कुटुम्बा सहित छः परगनों-अंछा, पचवन, गोह, मनोरा की बंदोबस्ती 1 लाख 75 हजार में दी गयी थी। लेकिन वे जमींदारी ठेका को अंग्रेजों की शोषण नीति मानकर विरोध करते रहे। 1770 के भीषण अकाल में उन्होने रैयतों की मालगुजारी माफ कर जनता में अपना खजाना बांटते हुए अंग्रेजों को मालगुजारी देने से इंकार कर दिया। लाचार होकर कंपनी सरकार ने तिलौथु के शाहमल को अवमिल नियुक्त कर उनके पास मालगुजारी वसूली के लिए भेजा जिसे उन्होने पीटकर खदेड़ दिया। तब ब्रिटिश सरकार के दीवान(उप गवर्नर) कर्नल बार्डर को शेरघाटी छावनी से सेना सहित उनसे कर वसूली के लिए भेजा गया, जिसने बगावत करने पर उनके पवई दुर्ग को 1778 ईस्वी में ध्वस्त कर दिया पर वें झुके नहीं और मिट्टी का गढ़ बनाकर रहने लगे।
राजा नारायण सिंह समेत कई राजा बनाए गए पटना के बेगम की हवेली में बंदी-बाद के दिनों में ब्रिटिश हुकूमत ने नई व्यवस्था के तहत पटना के राजा कल्याण सिंह को कंपनी सरकार का दीवान यानि बिहार के जमींदारों का प्रधान ‘राय’ बनाया तथा बनारस के राजा चेत सिंह के शत्रु क्याली राम को कल्याण सिंह ने नायब नियुक्त किया। मि. मैक्सवेल को कंपनी ने राजस्व प्रधान नियुक्त किया। इस व्यवस्था के अनुसार कल्याण सिंह को बिहार के जमींदारों को बकाया मालगुजारी नहीं देने पर बंदी बनाने का अधिकार था। इस आधार पर राजा कल्याण सिंह ने पवई के राजा नारायण सिंह, नरहट सराय के राजा अकबर अली, भोजपुर के राजा विक्रमजीत सिंह, जगदीपुर के राजा भूपनारायण सिंह, तिरहुत के राजा मधु सिंह एवं अन्य राजाओं को पटना की बेगम की हवेली में मालगुजारी बकाये के कारण बंदी बना लिया गया। इस क्रम में कंपनी सरकार ने बगावत की संभावना को देखते हुए किस्त वसूली का एवं मालिकाना हक स्वीकृत कर राजा नारायण सिंह समेत सभी राजाओं को 1778 ईस्वी में रिहा कर दिया।
इसके बाद जब बनारस के राजा चेत सिंह ने कंपनी शासन के विरूद्ध बगावत कर आजादी की खुली घोषणा कर दी तो विक्षुब्ध जमींदारों ने उनका साथ दिया। इस क्रम में भूपनारायण सिंह एवं विक्रमजीत सिंह ने आरा-बक्सर होकर दानापुर छावनी से आने वाली फौज को अवरूद्ध कर दिया। मधु सिंह ने छपरा-बलिया का मार्ग बंद किया। अकबर अली ने कर्मनाशा में नाकेबंदी की और पवई के राजा नारायण सिंह ने सासाराम के अवमिल कुली खां व टेकारी के राजा पीताम्बर सिंह के साथ मिलकर सोन के पचिमी तट पर मोर्चाबंदी की तथा कोलकात्ता से बनारस आने वाली सेना को बारून के मल्लाहों से सोन नद में डुबवा दिया। बचे-खुचे सैनिकों को मार डाला।
5 मार्च 1781 को राजा नारायण सिंह ने पहली बार अंग्रेजों को पचवन में चखाया पराजय का स्वाद-5 मार्च 1781 को राजा नारायण सिंह ने पहली बार अंग्रेजों को पचवन क्षेत्र में पराजित किया। बिहार के राजाओं द्वारा ऐसी नाकेबंदी के कारण पूरब तरफ ब्रिटिश फौज बनारस या चुनार नहीं पहुंच सकी और वारेन हेस्टिंग्स की जान खतरे में पड़ गयी। तब इलाहाबाद, कानपुर एवं गोरखपुर से सेना पहुंचकर सहायता कर पाई। इसके बाद राजा भूपनारायण सिंह बंदी बना लिए गए जबकि भोजपुर के राजा विक्रमजीत सिंह भयभीत होकर अंग्रेजो से मिल गये पर पवई के राजा नारायण सिंह सम्पूर्ण बिहार में अंग्रेजों से लड़ते रहे।
वास्तव में राजा नारायण सिंह ने चतरा से शेरघाटी होकर राजा चेत सिंह पर चढ़ाई करने जा रही मेजर क्रोफोर्ड की सेना को औरंगाबाद क्षेत्र में रोक रखा था जबकि नारायण सिंह की 1500 सेना मैरवां आकर चेत सिंह के सेनापति बेचू सिंह से एवं उनके सैनिकों से आ मिली थी। उन्होने कोड़िया घाटी एवं कैमूर पहाड़ियों में मेजर क्रोफोर्ड से भारी युद्ध किया था जिसमें पलामू के राजा गजराज राज ने साथ दिया जबकि उनके विरूद्ध चरकांवा के राजा छत्रपति सिंह एवं उनके पुत्र फतेह नारायण सिंह ने 900 सैनिकों सहित मेजर क्रोफोर्ड का साथ दिया, जिसके बख्शीश में उसे चरकांवा की जमींदारी रोहतास के नायब क्याली राम ने बंदोबस्त की। छत्रपति सिंह की गद्दारी के कारण राजा नारायण सिंह टेकारी की ओर नहीं जा सके बल्कि पुनपुन, सोन की घाटी, पवई, रामनगर, एवं कैमूर की पहाड़ियों में ही मेजर क्रोफोर्ड को गुरिल्ला युद्ध में उलझाए रखा।
जनरल हार्डों ने राजा नारायण सिंह को कैद कर लेने का दिया आदेश-जब क्रोफोर्ड को कार्यकारी गवर्नर चार्टर्स एवं जनरल हार्डों ने राजा नारायण सिंह को कैद कर लेने का आदेश दिया तब महादेवा के मारू सिंह ने उनका विरोध कर उन्हे पकड़वाने का षड्यंत्र किया। छ्ल से कैद किए जाने के बाद ढाका जेल भेजे गए राजा नारायण सिंह-अंततः राजा नारायण सिंह तिलौथु क्षेत्र में मेजर क्रोफोर्ड एवं जनरल हार्डों की बड़ी सेना से घिर गए। तब वें अनुज राम सिंह की सलाह पर उप गवर्नर चार्टर से संधि वार्ता करने पटना गए जहां उन्हे छल से कैद कर लिया गया तथा 5 मार्च 1786 को उन्हे राजकीय बंदी के रूप में ढांका जेल भेज दिया गया। बाद में रिहा होने पर वे पवई दुर्ग में ही रहने लगे और कुछ दिनों पचात उनकी मृत्यु हो गयी।
इतिहासकारों ने नही किया न्याय, धूल धूसरित हो गया दुर्ग- भले ही इतिहासकारों ने राजा नारायण सिंह के साथ न्याय नहीं किया लेकिन उनकी रियासत पवई के लोग आज भी उनकी गिनती अंग्रेजों के प्रथम शत्रु के रूप में ही करते हैं। दुःखद बात यह है कि पवई रियासत स्थित उनका गढ़ संरक्षण के अभाव में धूल-धूसरित हो गया है। राजा नारायण सिंह के वंशजों को इस बात का मलाल है कि इतिहास के पन्नों में उनके पूर्वज को प्रमुखता नहीं मिल सकी। उन्हे इस बात का भी रंज है कि इतिहास को जानते हुए औरंगाबाद ने भी उन्हे उपेक्षित रखा और आज की तारीख में पूरे जिले में उनका कही भी भव् स्मारक नही है बल्कि औरंगाबाद शहर के रमेश चौक पर उनके नाम पर बने राजा नारायण सिंह पार्क में उनकी एक छोटी सी प्रतिमा स्थापित है। इतना तक कि उनके नाम पर न कोई स्मारक है और न ही कोई सरकारी भवन या संस्थान।
वैसे राजा नारायण सिंह से जुड़ा सुःखद पहलू यह है कि यहां के राजनीतिज्ञ भी उन्हे ब्रिटिश हुकुमत के प्रथम शत्रु के रूप में ही देखते है। यही कारण है कि हर वर्ष उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर यहां आयोजित होने वाले समारोहों में सभी राजनीतिक दलों के लोग समान रूप से ही शिरकत करते हैं। बहरहाल इतिहास के अनछुए पहलू एवं आजादी की पहली लड़ाई की तारीख निर्धारण को लेकर इतिहासकारों मे भले ही मतभेद हो सकता है लेकिन राजा नारायण सिंह से जुड़ी हर एक चीज एवं उनका व्यक्तित्व-कृतित्व चीख-चीखकर इस बात को दुहरा रहा है कि स्वर्गीय सिंह ही अंग्रेजी सल्तनत के पहले शत्रु थे और उन्होने ही आजादी की पहली लड़ाई का शंखनाद किया था। ऐसे में यह शोध किया जाना समीचीन प्रतीत होता है कि आजादी की पहली लड़ाई वास्तव में कब लड़ी गई थी, 1857 में या 1770 में।
दीनानाथ मौआर का यह खास रिपोर्ट