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पूरब के उजाड़ को थाम लेने का पर्व 'छठ' पंडित के 'पतरा' का नहीं 'अंचरा' का परब है

पूरब के उजाड़ को थाम लेने का पर्व 'छठ' पंडित के 'पतरा' का नहीं 'अंचरा' का परब है

पटना. छठ में आकाश का सूरज बहुत कम-कम है, मिट्टी का दीया बहुत-बहुत ज्यादा!" इसलिए कहते हैं कि छठ पंडित के 'पतरा' का नहीं 'अंचरा' का परब है। यानी "छठ की कथा नहीं हो सकती, उसके गीत हो सकते हैं. गीत ही छठ के मंत्र होते हैं. छठ के गीतों में अपना कंठ मिलाइए तो छठ का मर्म मालूम होगा. इन गीतों में ना जाने किस युग से एक सुग्गा चला आता है, यह सुग्गा केले के घौंद पर मंडराता है, झूठिया देता है, धनुख से मार खाता है. एक सुगनी चली आती है. वह वियोग से रोती है—‘ आदित्य होखीं ना सहाय. ’ इस सुग्गे के हजार अर्थ निकाल सकते हैं आप लेकिन जिस भाषा का यह गीत है वहां सुग्गा शहर कलकत्ता बसने के बाद से एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है.

याद करें महेन्द्र मिसिर को— उनके गए उस गीत को जिसमें कहा जा रहा है - ‘पिया मोरा गइले रामा पुरूबी बनिजिया से देके गइले ना,/ एगो सुगना खेलवना राम से देके गइले ना .’ / गीत में ऊपर की ओर चढता विरह आखिर को बोल देता है—‘ एक मन करे सुगना धई के पटकती से दोसर मनवा ना,..... हमरा पियवा के खेलवना से दोसर मनवा ना.’ लेकिन गीत के आखिर में यही सुगना नेह की डोरी को टूटने से बचा लेता है—‘उडल उडल सुगना गइले पुरूबवा से जाके बइठे ना, मोरा पिया के पगरिया से जाके बइठे ना..’.

पिया पगड़ी को उतारकर सुगना को अपनी जांघ पर बैठा लेते हैं—‘पूछे लगले ना, अपना घरवा के बतिया से पूछे लगले ना.’ और फिर सुग्गे का बयान सुनकर हृदय में हाहाकार उठा—‘सुनी सुगना के बतिया पिया सुसुके लगले ना, सुनि के धनिया के हलिया के पियवा सुसुके लगले ना…।’ 

केले के घौंद पर मंडराते सुग्गे का अर्थ महेन्दर मिसिर के इस गीत में गूंजते विरह और पलायन के भीतर अगर आपने नहीं पढ़ा तो फिर निश्चित जानिए बीते दो सौ सालों से हम पूरबिया लोगों के बीच छठ की बढ़ती आयी महिमा को पहचानने से आप वंचित रह जायेंगे. पारिवारिकता की कुंजी है दाम्पत्य और ‘पूरब के साकिनों’ के दाम्पत्य यानी पारिवारिकता पर पिछले पौने दो सौ सालों से रेलगाड़ियां बैरन बनकर धड़धड़ा रही हैं.

‘पिया कलकतिया भेजे नाहीं पतिया’ नाम के शिकायती सुर के भीतर शहर कलकत्ते के हजार नये संस्करण निकले आये हैं. गौहाटी, नैहाटी, दिल्ली, नोयडा, गुड़गांव मुंबई, पुणे, चेन्नई, बंगलुरु कितने नाम गिनायें. ये सब नगरों के नाम नहीं हमारे लिए हमेशा से ‘शहर कलकत्ता’ हैं— वणिज के देश ! क्या होता है वणिज के देशों में जाकर ?

पूर्वांचल के गांवों में बड़े-बुजुर्ग कहते हैं- जिन पूत परदेसी भईलें, देव पितर, देह सबसे गईलें ! ऐसे में जो घर का उजाड़ है, वह छठ-घाट के उजाड़ के रुप में झांकने लगे तो क्या अचरज ! और, घर को कायम रखने का जो संकल्प है वही छत्तीसों घंटे उपवास रहकर, भूमि को शैय्या बनाकर, एक वस्त्र में हाड़ कंपाती ठंढ़ में दीया जलाकर छठी मईया से घर भर में गूंजनेवाली किलकारी आशीर्वाद रुप में मांग बैठे तो भी क्या अचरज! छठ के एक गीत में यों ही नहीं आया – ‘कोपी कोपी बोलेली छठी मईया, सुनी ये सेवक सब/ मोरा घाटे दुबिया उपजी गईलें, मकड़ी बसेर लेले/ हंसी हंसी बोलेनी महादेव/सुनी ऐ छठी मईया, मोरा गोदे दीहीं ना बलकवा/ त दुभिया छिलाई देब, मकड़ी उजाड़ी देब, दूधवे अरघ देब.’

छठ पूरब के उजाड़ को थाम लेने का पर्व है, छठ चंदवा तानने और उस चंदवे के भीतर परिवार के चिरागों को नेह के आँचल की छाया देने का पर्व है. छठ ‘शहर कलकत्ता’ बसे बहंगीदार को गांव के घाट पर खींच लाने का पर्व है. छठ में आकाश का सूरज बहुत कम-कम है, मिट्टी का दीया बहुत-बहुत ज्यादा!"

इस मिट्टी के दीये के साये में हम अपना अस्तित्व बनाये रखें, सूरज को दीया दिखाकर।

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