बिहार विधानसभा का शीतकालीन सत्र 6 नवंबर से शुरु होगा. सीएम नीतीश ने जातीय जनगणना जाकी होने के बाद इशारों में कहा था कि सत्र के दौरान जातीय जनगणना के आर्थिक सर्व को पटल पर रखा जाएगा. इसके साथ हीं बिहार में राजनीतिक पारा गर्माने की उम्मीद की जा रही है. जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी कर नीतीश ने अपने विरोिधियों के साथ साथ अपने साथियों को भी एक दाव में चित कर दिया. उनका प्रयोग राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बन गया है. बिहार में नीतीश कुमार सरकार के जाति सर्वे ने जाति की पूरी बहस को एक बार फिर राजनीति के केंद्र में ला दिया है. ये सर्वे बीजेपी की धर्म कीी राजनीति पर हमला माना जाने लगा है, जिसने 2024 के चुनाव का मूड सेट कर दिया है.
साल 2013-14 में 9 महीनों के काल खंड को छोड़ दें तो नीतीश कुमार साल 2005 से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने हुए हैं. कुर्सी पर बने रहने का सबसे बड़ा कारण उनकी सामाजिक यांत्रिकी है.अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए नीतीश कुमार ने अत्यंत पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी के एक बड़े हिस्से को तोड़ दिया और उन्हें पिछड़े वर्ग की तुलना में स्थानीय निकायों और नौकरियों में ज्यादा आरक्षण दिया, जिससे ईबीसी वर्ग में नीतीश कुमार का प्रभाव बढ़ गया. ईबीसी के समर्थन की मदद से ही नीतीश कुमार, बिहार में लालू प्रसाद यादव को सत्ता से बाहर कर पाए थे. बिहार में ईबीसी की आबादी कमोबेस 36.01 प्रतिशत है, वहीं पिछड़ा वर्ग का जनाधार 27.12 फिसदी है. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार ईबीसी के बीच नीतीश कुमार के दबदबे के कारण ही संभव है कि वे इतने लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं.
नीतीश चाहे वह बीजेपी के साथ हों या राष्ट्रीय जनता दल के साथ, नीतीश कुमार जिस भी पार्टी के साथ गठबंधन करते हैं, पिछले आंकड़ों के अनुसार उसे जीत दिलवाते हैं. साल 2024 के चुनावों में भाजपा ने बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 32 पर जीत दर्ज की थी और केंद्र में अपनी सरकार बनाई थी. हालांकि जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने 2015 में भाजपा को करारी हार देते हुए हाथ मिलाया था, तो जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन ने राज्य की 243 सीटों में से 178 सीटों पर विजय प्राप्त की थी. इस चुनाव में बीजेपी के खाते में महज 53 सीटें आई थीं.
साल 2017 में जब नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ हाथ मिलाया तो वह फिर से मजबूत हो गई. 2019 के आम चुनावों में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
कुछ महीने पहले राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद सीएम नीतीश पर भारी पड़ते दिख रहे थे, जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी होते हीं स्थिति बदल गई. अब जातियों के आर्थिक स्थिति को पटल पर रखा जाना है , ऐसे में माना जा रहा है कि नीतीश के पाले में फिर गेंद होगी और वे मैदान में चौके छक्के मारते नजर आ सकते हैं.
अगर बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन की बात करें तो इसमें जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के साथ वाम पार्टियां भी शामिल हैं. यही वजह है कि विपक्षी गठबंधन को ये लग रहा है कि कम से कम बिहार के अंदर तो आम चुनावों में बीजेपी का सफाया किया जा सकता है और इस सफाए में नीतीश के जातीय जनगणना की रिपोर्ट कार्ड सबसे बड़ा हथियार साबित हो सकती है.इस सर्वे ने देश की राजनीति में फिर से समाजिक न्याय की बहस को तेज़ कर दिया है.