पुराणों में वर्णित असंख्य देवताओं के बीच गणेश हमारे सबसे अलबेले और विचित्र देवता हैं। महादेव शिव और देवी पार्वती के पुत्र गणेश वस्तुतः कोई लौकिक अथवा अलौकिक अस्तित्व नहीं, प्रकृति की शक्तियों के विराट रूपक हैं। इस रूपक को प्रामाणिकता देने के लिए उसके आसपास असंख्य मिथक गढ़े गए। हमारे पूर्वजों ने गणेश के रूप में प्रकृति और मनुष्य के बीच सामंजस्य का एक प्रतीक गढ़ा है। गणेश का मस्तक हाथी का है। चूहे उनके वाहन हैं। बैल नंदी उनका मित्र, शिक्षक और अभिभावक। मोर और सांप उनके परिवार के सदस्य ! पर्वत उनका आवास है। वन उनका क्रीड़ा-स्थल। आकाश उनकी छत। वे शक्ति के पुत्र हैं, लेकिन उनका प्रचलित रूप गढ़ने में नदी की बड़ी भूमिका रही है।
कहा जाता है कि शक्तिरूपा पार्वती ने अपने शरीर के मैल से एक छोटी-सी आकृति गढ़ी और उस आकृति को गंगा में नहला दिया। गंगा के स्पर्श से उस आकृति में जान आई। पार्वती ने उसे पुत्र कहा तो देवताओं ने उसे गांगेय कहकर संबोधित किया। गणेश गणपति के रूप में गणों के अधिपति तो हैं ही, उन्हें जल का अधिपति भी माना गया है। गणेश के चार हाथों में से एक हाथ में जल का प्रतीक शंख, दूसरे हाथ में सौंदर्य का प्रतीक कमल, तीसरे हाथ में संगीत का प्रतीक वीणा है और चौथे हाथ में शक्ति का प्रतीक परशु या त्रिशूल हैं। गणेश के शरीर का रंग हरा और लाल है। हरा रंग प्रकृति तथा लाल शक्ति का प्रतीक है। सृष्टि के रचेता ब्रह्मा की दो मानस पुत्रियां रिद्धि और सिद्धि उनकी दो पत्नियां हैं जो वस्तुतः देह में हवा के आने और जाने अर्थात प्राण और अपान की प्रतीक हैं जिनके बगैर कोई जीवन संभव नहीं।
गणेश और प्रकृति के एकात्म का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्हें महंगी पूजन सामग्रियां नहीं, प्रकृति में बहुतायत से मौजूद पेड़-पौधों की पत्तिया और घास सबसे ज्यादा प्रिय है। गणेश के इक्कीस मुख्य नामों से प्रकृति के इक्कीस प्रमुख पेड़-पौधों की पत्तियां अर्पण करने का विधान है। प्रकृति में बहुतायत से उपलब्ध हरी-भरी दूब उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। जबतक इक्कीस दूबों की मौली अर्पित न की जाय, उनकी पूजा अधूरी मानी जाती है। शास्त्रों में उल्लेख है कि आम, पीपल और नीम के पत्तों वाली गणेश की मूर्ति घर के मुख्यद्वार पर लगाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। गणेश के मिट्टी से जुड़ाव का एक प्रमाण यह भी है कि किसी भी मंदिर, घर या दुकान में गणेश की मूर्ति रखते समय यह ध्यान देना अनिवार्य होता है कि उनके पैर जमीन का स्पर्श करें।
प्रकृति की शक्तियों के प्रतीक होने के कारण गणेश एक साथ मासूम, शक्तिशाली, योद्धा, विद्वान, कल्याणकारी, शुभ-लाभ और कुशल-क्षेम के दाता हैं। उनके सम्मान का अर्थ है प्रकृति में मौजूद सभी जीव-जंतुओं, जल, हवा, जंगल और पर्वत का सम्मान। उन्हें आदिदेवता, देवताओं में प्रथम पूज्य और आदिपूज्य भी कहा गया है। इसका अर्थ है कि प्रकृति पहले, बाकी सब उसके बाद। हिन्दू धर्म और संस्कृति में किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ करने के पहले 'श्री गणेशाय नमः' कहने और लिखने की परंपरा है। मनुष्य तो क्या, त्रिपुरासुर के बध के पहले स्वयं उनके पिता शिव को भी उनकी आराधना करनी पड़ी थी। हमारे पूर्वजों द्वारा गणेश के इस अद्भुत रूप की कल्पना संभवतः यह बताने के लिए की गई है कि प्रकृति को सम्मान देकर और उसकी शक्तियों से सामंजस्य बिठाकर शक्ति, बुद्धि,कला,संगीत,सौंदर्य,भौतिक सुख, लौकिक सिद्धि, दिव्यता, आध्यात्मिक ज्ञान सहित कोई भी उपलब्धि हासिल की जा सकती है। यही कारण है कि संपति, समृद्धि, सौन्दर्य की देवी लक्ष्मी और ज्ञान, कला, संगीत की देवी सरस्वती की पूजा भी गणेश के बिना पूरी नहीं मानी जाती।
गणेश के वास्तविक स्वरुप को भुला देने का असर प्रकृति के साथ हमारे रिश्तों पर पड़ा है। आज प्रकृति और अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से रूबरू हैं और इस संकट में हम उसके साथ नहीं, उसके खिलाफ खड़े हैं। गणेश के अद्भुत स्वरुप को समझना और पाना है तो उसके लिए उनके मंदिरों और मूर्तियों की स्थापना और भजन-कीर्तन का कोई अर्थ नहीं। गणेश हम सबके भीतर हैं। प्रकृति, पर्यावरण और जीवन को सम्मान और संरक्षण देकर हम अपने भीतर के गणेश को जगा सकते हैं !
-ध्रुव गुप्त के सोशल मीडिया से (लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी और वरिष्ठ साहित्यकार हैं )