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भारतीय राजनीति के 'अटल हस्तक्षेप' पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी सदन से लेकर सड़क तक सहज, सरल और शालीन सियासत के प्रतीक, पढ़िये विशेष लेख...

भारतीय राजनीति के 'अटल हस्तक्षेप' पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी सदन से लेकर सड़क तक सहज, सरल और शालीन सियासत के प्रतीक, पढ़िये विशेष लेख...

पटना. 'सरकारें आएंगी-जाएंगी मगर ये देश और उसका लोकतंत्र रहना चाहिए।' यह कथन भारत रत्न और देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी का है। वही अटल जिन्होंने अपने सिद्धांतों से समझौता किये बिना ही 1999 में सरकार गिरा दी थी। वही अटल जी जिन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए मई 1998 में दूसरी बार परमाणु परीक्षण की अनुमति दी थी। वही अटल जी जिन्होंने 1999 के कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया। आज उसी अटल जी की 98वीं जयंती पर उनके बार में विशेष जानिए...

अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्वालियर से ही शुरुआती पढ़ाई की और इसके बाद कानपुर चले आए। यहां उन्होंने डीएवी कॉलेज से एलएलबी की। इसके बाद उन्होंने सियासत में एंट्री ली और एक मुकाम बनाया। इस दौरान उन्होंने एक से बढ़कर एक रचना भी की। उन्होंने करीब 50 से ज्यादा कविता लिखी है। साल 2015 में भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से उन्हें नवाजा गया।

प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजयपेयी

पहली बार अटल बिहारी बाजपेयी 1996 में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। हालांकि उनकी सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली और मात्र 13 दिनों में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। वे सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाये थे। फिर वे दूसरी बार 1998 में प्रधानमंत्री बने थे। 13 महीने बाद फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और 1999 में उन्होंने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह कार्यकाल उन्होंने पूरा किया और 2004 में लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने।

प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजयेपी का एक से बढ़कर एक उपलब्धि है। उनके कार्यकाल में भारत 1998 में दूसरी बार परमाणु परीक्षण किया। 1999 के कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को पराजित किया। उन्होंने चार महानगर को जोड़ने के लिए चतुर्भुज योजना चलाई। ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए प्रधानमंत्री सड़क ग्राम विकास योजना, जिलों को जोड़ने के लिए नेशनल हाईवे जैसी योजना अटल जी ने ही दी है।

विपक्ष के रूप में अटल जी

अटल बिहारी वाजयेपी का अधिकांश समय विपक्ष में ही गुजरा। पहली बार 1952 के लोकसभा चुनाव में वे हार गये थे। इसके बाद उन्होंने 1957 में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर सीट से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा। इसमें जीत के बाद पहली बार संसद में पहुंचे। उस दौरान 1957 से 77 तक जनता पार्टी की स्थापना तक वे बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। इस दौरान उन्होंने सदन में इंदिरा गांधी को दुर्गा भी बताया। इंदिरा गांधी ने अटल बिहार को विपक्ष में रहते हुए भी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा। इन सब के बावजूद भी 31 मई 1996 को संसद में अटल बिहारी वाजयेपी का भाषण उन्होंने महान बनाता है। उन्होंने सदन में कहा था कि 'सरकारें आएंगी-जाएंगी मगर ये देश और उसका लोकतंत्र रहना चाहिए।' उनका यह भाषण हमेशा प्रसांगिक रहेगा। विपक्ष भी उनके इस कथन को सदन में दोहराते रहते हैं।

कवि के रूप में अटल जी

अटल बिहारी वाजयेपी एक राजनेता, वक्ता और प्रत्रकार के साथ हिंदी के प्रसिद्ध कवि भी थे। उन्होंने अपने जीवन में 50 से ज्यादा कविता लिखी है। सभी को लिखाना तो यहा उचित नहीं होगा। वो कालजयी कविता, जो जानना जरूरी है, उसे स्थान दिया गया है...

क्षमा याचना

क्षमा करो बापू! तुम हमको,

बचन भंग के हम अपराधी,

राजघाट को किया अपावन,

मंज़िल भूले, यात्रा आधी।

जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,

टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

चिताभस्म की चिंगारी से,

अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

मौत से ठन गई

ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

राह कौन-सी जाऊँ मैं?

चौराहे पर लुटता चीर,

प्यादे से पिट गया वज़ीर,

चलूँ आख़िरी चाल कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं?

राह कौन-सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया,

मधु ऋतु में ही बाग़ झर गया,

तिनके टूटे हुए बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?

राह कौन-सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में

घाटों के व्यापार में

क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?

राह कौन-सी जाऊँ मैं?

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