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देश के इन तीन बड़े नेताओं के खेल में नीतीश की कुर्सी जाना तय! बिहार का बदलेगा मुखिया,तेजस्वी भी इंतजार में

देश के इन तीन बड़े नेताओं के खेल में नीतीश की कुर्सी जाना तय! बिहार का बदलेगा मुखिया,तेजस्वी भी इंतजार में

PATNA : जिस तरह से 12 जून को होनेवाली बैठक को रद्द किया गया है। उसके बाद बिहार की सियासत और नीतीश कुमार के सपने को लेकर अटकलें शुरू हो गई है। वहीं बैठक को लेकर जिस तरह से कांग्रेस और दूसरे दलों के बड़ें नेताओं ने किनारा किया, उसके बाद यह माना जा रहा है कि पिछले साल नीतीश कुमार ने मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की जो मुहिम शुरू की थी, उसमें वह नाकाम हो गए हैं। ऐसे में अब कहा जा रहा है कि राजद भी इस बात को समझ चुका है कि नीतीश कुमार को जिम्मेदारी सौंपी गई थी, वह उसमें पूरा नहीं कर पाएंगे। ऐसे में तेजस्वी भी सही समय के इंतजार में लगे हुए हैं।

कभी परवान नहीं चढ़ सकी नीतीश की मुहिम

पिछले साल जब नीतीश कुमार ने विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम शुरू की, तो लगा कि इस बार नरेंद्र मोदी को मजबूत विपक्ष मिलेगा। लेकिन, शुरूआत ही खराब हुई। पहले केसीआर पटना आए, यहां से लौटते ही केसीआर ने अलग राह पकड़ ली। फिर वह लालू प्रसाद के साथ सोनिया गांधी से मिलने गए। , लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें संतोषजनक जवाब नहीं दिया। उस वक्त राहुल गांधी को मानहानि मामले में सजा नहीं हुई थी और वे भारत जोड़ो यात्रा की तैयारी में लगे थे। बाद में जब उन्हें सजा हो गई और इस आधार पर उनकी संसद सदस्यता जाने के साथ चुनाव लड़ने की संभावना खत्म हो गई तो नीतीश कुमार अचानक सक्रिय हो गए।

हालांकि इस बार उन्होंने एकता के लिए नया फॉर्म्युला निकाला कि वे पीएम पद की रेस में शामिल नहीं हैं। कांग्रेस ने उनकी बात सुनी और उन्हें ही विपक्षी दलों को एकजुट करने का जिम्मा सौंप दिया। अब स्थिति बदल गई है। कर्नाटक चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस नए जोश में है, वह कभी भी नेतृत्व नीतीश कुमार को नहीं देगी, यह बात राजद भी अच्छी तरह से समझ चुकी है।




केजरीवाल और ममता को मनाना मुश्किल

नीतीश कुमार अब तक केजरीवाल से दो बार उनके आवास पर मुलाकात कर चुके हैं। तस्वीरें भी खिंचवाई, लेकिन बात साथ आने की होती है, तो केजरीवाल कांग्रेस के साथ खड़े होने से पीछे हो जाते हैं। दो राज्यों में उनकी सरकार है। राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल चुका है। आप और कांग्रेस साथ नहीं होंगे, राजद यह बात समझ चुकी है।

उसी तरह बंगाल की सीएम ममता बनर्जी को भी कांग्रेस का साथ पसंद नहीं है। हालांकि उन्होंने समर्थन का ऐलान जरूर किया, लेकिन इसके साथ नीतीश को एक मुश्किल टास्क भी सौंप दिया कि वह सारे विपक्षी पार्टियों को एकजुट कर बड़ी बैठक करें। नीतीश कुमार ने कोशिश शुरू की, लेकिन बड़े नेताओं ने व्यस्तता का बहाना बनाकर बैठक से दूरी बनानी शुरू कर दी। तीन बार इसे स्थगित किया जा चुका है, जो बताता है कि ममता ने जो चाल चली, उसकी काट नहीं निकल सकी।

खत्म हो चुका है नीतीश का जनाधार

नीतीश कुमार को मुहिम में मिला नाकामी को अब राजद भी समझने लगा है। ऐसे में आरजेडी को यह नागवार लगता है कि सिर्फ 43 विधायकों वाली पार्टी जेडीयू का नेता कैसे सीएम बना रहेगा। दूसरा कि अब नीतीश कुमार का जनाधार भी खत्म हो गया है। उनके अपने ही नेता साथ छोड़ रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार राजनीतिक रूप से इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनसे बेहतर हाल में तो मूल महागठबंधन के नेता ही हैं।

आरजेडी ने नीतीश कुमार के पर कतरने का जो ब्लू प्रिंट तैयार किया है, उसमें तीन बातें काफी महत्वपूर्ण और तार्किक हैं। नीतीश कुमार का जेडीयू 43 विधायकों के साथ अभी तीसरे नंबर की पार्टी है। साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को भले ही 16 सीटों पर जीत मिल गई और आरजेडी शून्य पर आउट हो गया था, लेकिन तब नीतीश को बीजेपी का समर्थन था। नीतीश कुमार की असली ताकत आंकने के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव को आधार बनाया जाए तो उन्हें सिर्फ दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। यानी उनकी अपनी ताकत महज दो सीटों की ही है। तीसरी बात यह कि नीतीश कुमार लव-कुश समीकरण के नेता 1994 से ही बने हुए हैं। 

हालांकि दो जातियों के वोट से उनकी कामयाबी संदिग्ध थी, पर बीजेपी का लगातार साथ मिलते रहने से उसके वोट भी नीतीश कुमार को ट्रांसफर होते रहे। अब समीकरण टूट चुका है। अपने दम पर लड़े चुनावों में नीतीश कुमार को जो 16-18 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं, उसमें 10-12 प्रतिशत वोट तो लव-कुश समीकरण वाले ही होते थे। अन्य जातियों में चार-पांच प्रतिशत वोट ही उन्हें मिलते थे। जाति-जमात के जकड़न में फंसे नीतीश के पास आज की तारीख में बमुश्किल 10 प्रतिशत वोट भी नहीं होंगे।

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