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बिहार के सियासी चूल्हे पर पकने लगी फिर यू-टर्न की राजनीति के मास्टर की खिचड़ी, BJP ने CM नीतीश के लिए अपने घर का खोला दरवाजा, इसी महीने कुछ बड़ा खेल होनेवाला है?

बिहार के सियासी चूल्हे पर पकने लगी फिर यू-टर्न की राजनीति के मास्टर की खिचड़ी, BJP ने CM नीतीश के लिए अपने घर का खोला दरवाजा, इसी महीने कुछ बड़ा खेल होनेवाला है?

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने झंझारपुर रैली में पानी और तेल का बयान देकर बिहार की राजनीति में भूचाल ला दिया है. उन्होंने लालू पर जमकर हमला किया तो नीतीश को सलाह भी दे डाली. इससे पहले राष्ट्रपति के निमंत्रण पर जी20 के नेताओं के सम्मान में दिए गए डिनर में नीतीश ने शामिल होकर कयासों को नई हवा दी थी. 

अपनी कुर्सी सुरक्षित-सलामत रखने और गठबंधन में दबदबा कायम करने के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार प्रेशर पॉलिटिक्स का सहारा लेते रहे हैं. साल 2005 से अब तक नीतीश की पार्टी जेडीयू ने कभी अपने दम पर सत्ता हासिल नहीं की। हमेशा उसे किसी के साथ की जरूरत पड़ी. लंबे समय तक तो नीतीश बीजेपी के साथ रहे. दूसरी बार वे आरजेडी के साथ हैं. हर मौके पर उन्होंने प्रेशर पॉलिटिक्स और तिकड़म का ही सहारा लिया. सहयोग करने वालों को उन्होंने काबू में रखने की कोशिश की. उनकी प्रेशर पॉलिटिक्स के कई नमूने देखने को मिल जाएंगे.

2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर नीतीश कुमार एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बने. लेकिन इस बार वह पहले से राजनीतिक रूप से कुछ कमज़ोर हो गए.भाजपा को 74 और राजद को 75 सीटें हासिल हुईं. साल 2022 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपने पद से इस्तीफ़ा देकर राजद से हाथ मिला लिया है और बीजेपी से संबंध तोड़ लिए हैं.पिछले साल 2022 में नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया. उन्होंने आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ सरकार बना ली. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने उन्हें इस शर्त पर सीएम बनाया कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वे राष्ट्रीय राजनीति में जाएं और बिहार की गद्दी तेजस्वी यादव के लिए खाली कर दें. आरजेडी ने तो उन्हें विपक्ष की ओर से पीएम पद की दावेदारी के लिए भी उकसाया. पहले तो नीतीश खामोश रहे, लेकिन जब आरजेडी ने उन्हें अपनी शर्तें याद दिलाईं तो वे विपक्ष को एकजुट करने के अभियान में जुटे, जो 1977 के बाद अक्सर कभी सफल नहीं रहा. इस बीच नीतीश ने तेजस्वी के नेतृत्व में 2025 का विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर समय लेने की कोशिश भी की. लेकिन आरजेडी के दबाव में उन्हें विपक्षी एकजुटता की पहल करनी पड़ी.

साल 2005 में  बिहार के मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने भाजपा की अलग-अलग पीढ़ियों के साथ अपना राजनीतिक सफर तय किया है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लाल कृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दौर वाली भाजपा के साथ काम किया है. यह कहना गलत नहीं होगा कि नीतीश ने 20 साल से ज़्यादा लंबे राजनीतिक सफर में  हमेशा खुद को भाजपा के शीर्ष नेताओं के लिए प्रासंगिक बनाए रखा. नीतीश कुमार और भाजपा के बीच ये रिश्ता साल 1996 में शुरू हुआ जब उन्होंने बाढ़ लोकसभा सीट जीतने के बाद भाजपा से हाथ मिलाया था. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने नीतीश कुमार को केंद्र में कई अहम ज़िम्मेदारियां दीं.जब वे सिर्फ सात दिनों के सीएम बने तो उन्होंने इसका श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को दिया. महागठबंधन में पहली बार गए तो भाजपा का साथ छोड़ने का कारण वाजपेयी के जमाने की भाजपा का न रह पाना बताया. दोबारा महागठबंधन की सरकार के मुखिया बने तो नरेंद्र मोदी को कोसने के लिए अटल जी के जमाने को याद किया. शायद ही कोई सार्वजनिक अवसर हो, जब नीतीश ने अटल बिहारी वाजपेयी का नाम न लिया हो. पांच साल में पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी की पुण्यतिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वे  दिल्ली पहुंच गए. चार-पांच महीने पहले ही वे अचनाक अपने कई मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ भाजपा के एमएलसी संजय मयूख के घर छठ का प्रसाद खाने पहुंच गए थे. दरअसल नीतीश कुमार भाजपा नेताओं से अपनी नजदीकी दिखा-बता कर आरजेडी पर दबाव बनाए रखना चाहते हैं, ताकि उन्हें बिहार की गद्दी से बेदखल करने के आरजेडी के प्रेशर से मुक्ति मिले.

बहरहाल नीतीश कुमार ने विपक्षी एकजुटता के लिए शुरुआती दौर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. पटना में 15 विपक्षी दलों को एक मंच पर जुटाया. घूम-घूम कर इसके लिए लोगों को मनाते-समझाते और तैयार करते रहे. लेकिन विपक्षी दलों की दूसरी बैठक करीब आते ही उन्हें एहसास हुआ कि उनकी उपेक्षा हो रही है. बेंगलुरु बैठक के बाद प्रेस कान्फ्रेंस में नहीं शामिल होना और पटना लौटने के बाद 24 घंटे तक चुप्पी साधे रखना उनकी नाराजगी का ही संकेत था. शायद यह भी एक वजह रही हो कि मुंबई में विपक्षी दलों की अगली बैठक होने से पहले उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि देने का सुनियोजित प्लान बनाया हो.

अब अमित शाह का मिथिलांचल दौरा.पिछले कुछ महीने के अंदर अमित शाह का शनिवार को छठा बिहार दौरा था. पिछली हर सभाओं में वे नीतीश कुमार के बारे में कहते थे कि उनके लिए एनडीए के दरवाजे बंद हो चुके हैं  आश्चर्यजनक ढंग से झंझारपुर दौरे में  उनके संबोधन में  यह बात नहीं निकली तो इसके पीछे राजनीतिक कारण तलाशे जा रहे हैं. नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने के बाद अमित शाह जब-जब बिहार आए, उन्होंने एक बात जरूर कही कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाजे सदैव के लिए बंद हो चुके हैं, वे आना भी चाहें तो एनडीए में उनके लिए जगह नहीं है. G20 के आयोजन के बाद से स्थितियां बदलीं. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने G20 के आयोजन के अवसर पर रात्रि भोज दिया था, जिसमें शामिल होने के लिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को राष्ट्रपति भवन से न्योता भेजा था. गैर भाजपा सरकार के कुछ मुख्यमंत्रियों ने भोज में शामिल होने से परहेज किया, लेकिन नीतीश कुमार शामिल हुए. एनडीए से संबंध तोड़ने के बाद  यह पहला मौका था, जब पीएम नरेंद्र मोदी से नीतीश का आमना-सामना हुआ. न सिर्फ दोनों मिले, बल्कि जिस अंदाज में तस्वीरें सामने आईं, उन्हें देख कर नीतीश के राजनीतिक सहयोगियों के कान र खड़े हो गए.उसके बाद से ही अटकलों का बाजार गर्म है. इसी बीच अमित शाह बिहार आए तो उनकी जुबान से नीतीश कुमार के बारे में कड़वे शब्द नहीं निकले.

 नीतीश के एनडीए में  वापसी की चर्चा इन दिनों बिहार में हो रही है. हालांकि नीतीश ने शाह के भाषण के बाद अपनी प्रतिक्रिया से ऐसी किसी संभावना पर पानी फेर दिया. शाह ने कहा था कि नीतीश और लालू की पार्टी का गठबंधन तेल-पानी की तरह है, जिसका कभी मेल ही नहीं हो सकता. उल्टे पानी के गंदा होने के खतरे अधिक हैं. यहां यह स्पष्ट कर दें कि नीतीश की पार्टी जेडीयू को शाह ने पानी बताया तो महागठबंधन के दूसरे दलों को तेल की संज्ञा दी. नीतीश ने शाह के बारे में कहा कि उन्हें बिहार या देश के बारे में कुछ भी पता नहीं है. वे ऐसे ही अंड-बंड बोलते रहते हैं तो राबड़ी ने उन्हें साहूकार बना डाला.

नीतीश ने भी पीएम मोदी को जन्मदिन की बधाई देकर उन अटकलों को और हवा दे दी है. भाजपा बिहार में मजबूत दोस्त की तलाश में है. उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी एनडीए के हिस्सा तो बन गए पर उनका कद नीतीश के बराबर नहीं है.

नीतीश कुमार बीजेपी से पहली बार 2014 में बिदके थे, जब पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया था. उन्होंने बीजेपी के सहयोग से बनी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की, लेकिन संयोग से सरकार बच गयी. 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में जब उनकी पार्टी जेडीयू की दुर्गति हुई तो उन्होंने जीतनराम माझी को सीएम बना दिया और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपने को आजाद कर लिया. यहां तक तो उनमें नैतिकता दिखाई पड़ रही थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटों में 31 पर जीत दर्ज की. एनडीए के घटक दल लोजपा को 6 और उपेंद्र कुशवाहा की तब की पार्टी आरएलएसपी को 3 सीटों पर कामयाबी मिली थी. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को महज दो सीटें ही मिलीं. आरजेडी को 4 और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थीं.बात 2015 के चुनाव की तो 2015 में बने महागठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी बन कर आरजेडी उभरी थी. 101 सीटों पर लड़ कर उसने 80 सीटों पर कामयाबी हासिल की. इतनी ही सीटों पर लड़ कर जेडीयू को 71 सीटें मिली थीं. कांग्रेस ने 41 सीटों पर लड़ कर 27 सीटें जीतीं. बीजेपी की दुर्गति का आलम यह था कि उसने 160 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, मगर 53 सीटों पर ही जीत मिली. लोजपा 40 पर लड़ी और 2 सीटें जीतीं. आरएलएसपी ने 23 उम्मीदवार खड़े किये, लेकिन उसे 2 पर ही कामयाबी मिली. जीतन राम माझी 20 सीटों पर लड़ कर महज एक सीट जीत पाये थे. संख्या बल में बड़ी पार्टी होने के बवजूद आरजेडी ने त्याग किया और 71 सीटों वाले नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी पर बिठाया.

डेढ़ साल (20 महीने) सरकार चली. अचानक नीतीश कुमार ने 26 जुलाई 2017 को आरजेडी विधायक दल के नेता और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनजर सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. इससे पहले उन्होंने यह जरूर कहा था कि तेजस्वी अपने उपर लगे आरोपों को लेकर जनता के बीच जाकर सफाई दें. इस्तीफा देने के कुछ ही घंटे के अंदर नीतीश उस बीजेपी के साथ सरकार बनाने के लिए राजभवन पहुंच गए, जिसके खिलाफ उन्हें जनादेश मिला था. नीतीश के इस्तीफे तक तो उनकी नैतिकता समझ में आ रही थी, लेकिन बीजेपी के साथ जाने से उनकी आलोचना होने लगी. उनका नामकरण लालू ने पलटूराम कर दिया.

मई 2017 से पिछले साल 2022 के दिसंबर तक नीतीश बीजेपी के साथ रहे. इसका सबसे अधिक लाभ उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव में मिला. 2014 की 2 सीटों के मुकाबले 2019 में लोकसभा में जेडीयू के सांसदों की संख्या 16 हो गयी. नीतीश के अड़ जाने पर बीजेपी ने पूर्व की अपनी सीटें छोड़ दीं और जेडीयू-बीजेपी 17-17 सीटों पर लड़े. इस बार बीजेपी, जेडीयू के अलावा सिर्फ रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ही एनडीए में थी. उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए छोड़ दिया था. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी और जेडीयू ने बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा. तब जेडीयू को 43 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. जेडीयू की इस दुर्गति के लिए पार्टी ने चिराग पासवान को जिम्मेवार ठहराया. चिराग की पार्टी भी एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ी, लेकिन उसने बीजेपी को बख्श दिया और जेडीयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार दिये. नीतीश का कहना था कि एलजेपी ने अगर जेडीयू के खिलाफ कैंडिडेट नहीं दिये होते तो उनकी सीटें पिछली बार से कम नहीं होतीं. जेडीयू का यह भी मानना था कि बीजेपी के इशारे पर ही चिराग ने ऐसा किया. तभी से बीजेपी के प्रति उनके मन में खटास थी. 2022 समाप्त होते-होते उन्होंने बीजेपी से बदला ले लिया और महागठबंधन के साथ आ गये.

राजनीति में अब पाला बदलना कोई नई बात नहीं  है. नीतीश आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ हैं. लेकिन नेता जिस तरह के बयान दे रहे हैं, उससे लगता है कि खेला होबे. बहरहाल नीतीश का दिल्ली दौरा, अमित शाह के झंझारपुर की रैली में तेल पानी का बयान और भाजपा का नीतीश के प्रति शॉफ्ट कॉर्नर कहीं न कहीं कयासों को हवा दे रहा है कि  बिहार की राजनीति में कुछ उलटफेर होने वाला है.


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