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जातीय गणना का श्रेय लूटने के लिए मची होड़, एनडीए सरकार का था निर्णय लेकिन कहीं ज्यादा उछल रहे लालू-तेजस्वी ..आखिर किसके पक्ष में बैठेगा सियासी गणित... पढ़िए इनसाइड स्टोरी

जातीय गणना का श्रेय लूटने के लिए मची होड़, एनडीए सरकार का था निर्णय लेकिन कहीं ज्यादा उछल रहे लालू-तेजस्वी ..आखिर किसके पक्ष में बैठेगा सियासी गणित... पढ़िए इनसाइड स्टोरी

डेस्क - बिहार के साथ जाति का चोली दामन का संबंध रहा है. जातीय जनगणना की रिपोर्ट क्या जारी हुई सूबे का पॉलिटिकल टेंपरेचर हाई लेवल पर पहुंच गया है. अब सवाल है कि जातीय जनगणना से किसका हित सधने वाला है. वहीं काफी समय से राजनीतिक पटल से दूर रहे राजद सुप्रीमो लालू यादव जातीय जनगणना के मुद्दे पर खासे सक्रिय हो गए हैं. लालू की सक्रियता को बिहार की जातीय राजनीति में राजद की पकड़ मजबूत करने के दृष्टि से देखा जा रहा है. बिहार में जातीय मुद्दा प्रभावी अहर्निश रहा है तो लोकसभा चुनाव 2024 की रणभेरी बजने हीं वाला है. ऐसे में जाति का मामला विकास के उपर एक दो चुनावों को छोड़ दें तो हमेशा से हीं हावी रहा है. जातीय जनगणना का मामला अति पिछड़ी जातियों की जनगणना का मसला है. सियासी जानकार मानते हैं कि बिहार की राजनीति में ओबीसी जातियों का खासा प्रभाव है.राजद हो या जदयू दोनों का वोट बैंक ओबीसी हैं तो भाजपा को भी अति पिछड़ा वर्ग की कुछ जातियों से समर्थन मिलता रहा है.

 जातीय जनगणना के बाद राजद -जदयू खासे खुश हैं तो भाजपा भी ठोस रणनीति बनाने में जुटी हुई है. बिहार में चुनाव है, राजद अपने ओबीसी आधार को मज़बूत करने की कवाद में जुटी है. नीतीश- लालू का गठबंधन है . बिहार की राजनीति में एक समय ऐसा रहा है जब लालू यादव की छवि ओबीसी जातियों के एक बड़े नेता के तौर पर थी, लेकिन धीरे-धीरे गैर-यादव जातियां जैसे कुर्मी, कोइरी, कहार, बेलदार आदि राजद से छिटकती चली गईं.नीतीश कुमार को भी गैर-यादव ओबीसी जातियों का समर्थन मिला और अलग-अलग जातियों के छोटे-छोटे दल भी उभर आए.इससे ओबीसी की पार्टी के तौर पर राजद की छवि कभी धूमिल होती गई. जातीय जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की संख्या बिहार में 27 प्रतिशत के करीब है. भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोपों के बीच राजद को यादवों और मुसलमानों की पार्टी माना जाने लगा.लालू यादव बिहार के ओबीसी वोट बैंक पर सेंध लगाने की जुगत में हैं.

जातीय राजनीति में जातीय जनगणना की रिपोर्ट के बाद 27 प्रतिशत ओबीसी बात उभरेगी हीं. अगर जातीय की रिपोर्ट के बाद पिछड़ी जातियों में अति पिछड़ी जातियों की तादाद इतनी ज़्यादा है कि उन्हें एक वोट बैंक की तरह लिया जा सकता है.

जातीय जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार यादव 14.26  फिसदी हैं तो मुसलमानों की संख्या 17.70 हैं . दोनों को अगर जोड़ दे तो 31.96 फिसदी वोटों पर लालू दावा करते हैं. इसके अलावा अगर 12 फिसदी मतदाताओं को लालू अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं तो ये 43.96 यानि 44 फिसदी के करीब हो जाएगा. इस आंकड़े के अनुसार देखें तो जातीय जनगणना की मांग का फायदा किसे होगा समझा जा सकता है.

80 के दशक में मंडल कमीशन बनने के समय से ही मांग चल रही ओबीसी की गणना हो. भारत में एससी और एसटी की जनगणना होती है, लेकिन अति पिछड़े वर्ग की नहीं होती. मंडल आयोग की सिफ़ारिश में भी ये कहा गया है कि उन्हें ये रिपोर्ट तैयार करते हुए इसलिए मुश्किल आई क्योंकि भारत में ओबीसी के बारे में उनके पास कोई प्राथमिक और प्रामाणिक डेटा ही नहीं था. अब बिहार में जातीय जनगणना के बाद एक डेटा सरकार के पास है और आने वाले समय में ये राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

अब जरा गौर कीजिए जातीय जनगणना का निर्णय भाजपा के साथ नीतीश जब थे तब हुआ. जाति जनगणना में भाजपा की अहम भूमिका थी, लालू यादव की पार्टी राजद इसमें कहीं शामिल नहीं थी, लेकिन रिपोर्ट जारी होने के बाद लालू यादव और उनकी पार्टी राजद इसका श्रेय लूटने में लगे है. इसको लेकर भाजपा पर प्रहार हो रहा है तो राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जातीय जनगणना का काम एनडीए के शासन काल में शुरु हुआ इसके बाद नीतीश एनडीए से नाता तोड़ कर राजद के साथ गए तो आज राजद इसका श्रेय लूट रही है यानि माल महाराज का मिर्जा खेले होली वाली कहवत.

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