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बिहार के कद्दावर नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री की हत्या मामले में ट्वीस्ट, 48 साल बाद फिर खुलेगी फाइल, केस पर होगी सुनवाई

बिहार के कद्दावर नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री की हत्या मामले में ट्वीस्ट, 48 साल बाद फिर खुलेगी फाइल, केस पर होगी सुनवाई

पटना- 2 जनवरी 1975 ...जगह थी समस्तीपुर रेलवे स्टेशन का प्लेटफॉर्म नंबर दो (अब तीन)..... भारत के पहले कैबिनेट मंत्री ललित नारायण मिश्र  पर  2 जनवरी को बम फेंका गया था. तीन जनवरी 1975 को उनकी मौत हो गई...लोग कहते हैं ललित बाबू बेवक्त न मारे गए होते, तो बिहार आज बहुत आगे होता.  ललित नारायण मिश्र की जब हत्या हुई, तब वो रेलमंत्री थे. कहते तो ये भी हैं कि अगर ललित बाबू जिंदा होते, तो जेपी कभी इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन शुरू ही न करते. हत्या हुई यानी साजिश रची गई. उनकी मौत के समय से जो बातें शुरू हुईं, वो कभी ठंडी नहीं हुईं. कई बातें हैं. कई अफवाहें हैं. बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की 48 साल पहले हुई हत्या की घटना की निष्पक्ष तरीके से फिर से जांच कराने की मांग पर दिल्ली हाइकोर्ट सुनवाई करेगा. यह याचिका ललित नारायण मिश्र के पोते वैभव मिश्र ने दायर की है. अदालत इस याचिका पर 16 मई को सुनवाई करेगी. न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की अध्यक्षता वाली पीठ ने वैभव मिश्र की अर्जी दोषियों की एक अपील के साथ सूचीबद्ध की. अदालत में सूचीबद्ध होने के बाद आजाद भारत की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री के सुलझ जाने के आसार दिख रहे हैं.

आखिर क्या थी साजिश

बम लगने के बाद डॉक्टरों की पूरी टीम ललित बाबू को बचाने में जुटी थी. जब रेल के रास्ते उनको अस्पताल लाया गया था, तब हालत इतनी बुरी नहीं दिख रही थी. बाहर से देखो, तो लगता नहीं था कि ये इंसान बम ब्लास्ट झेलकर आया है. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र की हालत ज्यादा खराब दिखती थी. बम के छर्रे दोनों पैर में घुसे हुए थे. खूब खून निकला था. उन्हें बचाया नहीं जा सका. उनकी मौत के अलावा दो और लोग इस हादसे के नाम हो गए. एक थे MLC सूर्य नारायण झा. दूसरे थे रेलवे विभाग में क्लर्क राम किशोर प्रसाद. एक दिन पहले समस्तीपुर रेलवे पुलिस ने जो FIR दर्ज की थी, उसके बाद जांच का जिम्मा CID को सौंप दिया गया. फिर बिहार सरकार ने नया नोटिफिकेशन जारी किया. केस की जांच CBI के सुपुर्द कर दी गई. CBI ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे जांच बिहार से बाहर ले जाने की इजाजत दी जाए. ये परमिशन मिलने में लंबा वक्त लग गया. 17 दिसंबर, 1979 को सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दी. 22 मई, 1980 को ये केस दिल्ली सेशन कोर्ट में ट्रायल के लिए भेजा गया.लंबा केस चला और फिर सजा भी सुनाई गई.इसी के खिलाफ आज दिल्ली हाईकोर्ट में आज सुनवाई है. 

इलाज में क्यों हुई देरी..

समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से 40 किलोमीटर दूर है दरभंगा मेडिकल कॉलेज. शॉर्ट में DMCH. वहां पहुंचना मिनटों का काम था, मगर DMCH में डॉक्टरों की हड़ताल थी. क्या इतनी बड़ी इमर्जेंसी में भी डॉक्टर ललित बाबू का इलाज नहीं करते? ब्लास्ट में घायल हुए कई लोगों को इलाज के लिए डॉक्टर नवाब के पास दरभंगा भेज दिया गया. मगर, ललित बाबू को दूर पटना भेजने का फैसला हुआ.

पटना आने में लगा 14 घंटा

 ललित बाबू और जगन्ननाथ मिश्र के साथ कुछ लोगों को एक ट्रेन में पटना के लिए रवाना किया गया. जाना था दानापुर रेलवे स्टेशन. रेल से करीब 132 किलोमीटर की दूरी. 1975 में इस दूरी को पाटने के लिए 6-7 घंटे काफी होने चाहिए. आज 4-5 घंटे लगते हैं. मगर ललित बाबू को लेकर रवाना हुई ट्रेन 14 घंटे से ज्यादा वक्त लगाकर दानापुर पहुंची. 14 घंटे नोट करके रख लीजिए. ये इस हत्याकांड से जुड़े सबसे अहम सवालों में से एक है.

असली साजिश नहीं आई सामने 

ललीत बाबू के भतीजे और जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र ने बताया कि ललित नारायण मिश्र का परिवार आज भी ये मानता है कि इस हत्या के पीछे कोई बड़ी साजिश थी, जो अब तक छुपी हुई है. ललित बाबू के बेटे विजय कुमार मिश्र तो CBI की जांच और अदालत के फैसले, सबसे अहमति जता चुके हैं. उन्होंने तो कभी भी CBI की जांच को सही नहीं माना. शुरुआत से ही कहते रहे कि ये जांच ठीक नहीं हो रही. असली साजिश कुछ और है, जो छुपी रह गई. 

परमिशन मिलने में लंबा वक्त लग गया

डॉक्टरों की एक भरी-पूरी टीम ललित बाबू को बचाने में जुटी थी. जब रेल के रास्ते उनको अस्पताल लाया गया था, तब हालत इतनी बुरी नहीं दिख रही थी. बाहर से देखो, तो लगता नहीं था कि ये इंसान बम ब्लास्ट झेलकर आया है. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र की हालत ज्यादा खराब दिखती थी. बम के छर्रे दोनों पैर में घुसे हुए थे. खूब खून निकला था. मगर ललित बाबू देखने में स्थिर लगते थे. दिक्कत उसमें थी, जिसको जान कहते हैं. लाख हाथ-पैर मारने के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका. उनकी मौत के अलावा दो और लोग इस हादसे के नाम हो गए. एक थे MLC सूर्य नारायण झा. दूसरे थे रेलवे विभाग में क्लर्क राम किशोर प्रसाद. एक दिन पहले समस्तीपुर रेलवे पुलिस ने जो FIR दर्ज की थी, उसके बाद जांच का जिम्मा CID को सौंप दिया गया. फिर बिहार सरकार ने नया नोटिफिकेशन जारी किया. केस की जांच CBI के सुपुर्द कर दी गई. CBI ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे जांच बिहार से बाहर ले जाने की इजाजत दी जाए. ये परमिशन मिलने में लंबा वक्त लग गया. 

हाई-प्रोफाइल केस 

17 दिसंबर, 1979 को सुप्रीम कोसमस्तीपुर रेलवे स्टेशन इंदिरा गांधी सरकार के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे. कार्यक्रम पहले से तय था. कई महीनों से तैयारी चल रही थी. उन्हें समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर के बीच बड़ी लाइन का उद्घाटन करना था. इसके लिए शाम का वक्त चुना गया था. पूरे लाव-लश्कर के साथ ललित बाबू वहां पहुंचे. मंच पर चढ़े. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र भी उनके साथ थे. कांग्रेस के कुछ और नेता भी साथ थे. ललित बाबू ने भाषण पूरा किया और मंच से नीचे उतरने लगे. ठीक इसी समय वहां मौजूद दर्शकों की भीड़ में से किसी शख्स ने मंच की ओर हथगोला उछाला. हथगोला फटा. अफरा-तफरी मच गई. 11 लोग बुरी तरह से घायल हुए. उन्हें जानलेवा चोट आई थी. इसके अलावा 18 लोगों को गंभीर चोट आई. घायलों में सबसे बड़ा नाम था ललित नारायण मिश्र का. बहुत हाई-प्रोफाइल केस था ये. GRP समस्तीपुर ने आनन-फानन में केस दर्ज कर लिया. जब ऑल इंडिया रेडियो का बुलेटिन आया, तो पूरे बिहार में सनसनी मच गई.

हत्यारे का पता लगाने में नाकाम रही एजेंसी

ललित नारायण मिश्र के पोते ने अपील में हत्या के लिए दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा सुनाये जाने को चुनौती दी है. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल 13 अक्तूबर को वैभव को दोषियों की अपील पर अंतिम सुनवाई में सहायता करने की अनुमति दी थी, जिसके बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री के पोते ने हाइकोर्ट का रुख किया. पूर्व केंद्रीय मंत्री के पोते ने अपनी अपील में कहा है कि इस मामले की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और गुनहगार की पहचान होनी चाहिए. दरअसल अब तक जांच में सीबीआई हत्यारे को तलाशने में नाकामयाब रही है.

क्या है मामला

ललित नारायण मिश्र वरिष्ठ कांग्रेस नेता और केंद्र में वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री थे. दो जनवरी, 1975 को समस्तीपुर में बड़ी लाइन का उद्घाटन करने गये थे. वहीं ग्रेनेड विस्फोट हुआ था, जिसमें मिश्र घायल हो गये थे. उन्हें इलाज के लिए समस्तीपुर से दानापुर ले जाया गया था, जहां अगले दिन यानी तीन जनवरी, 1975 को उनकी मृत्यु हो गयी. पूर्व रेल मंत्री और दो अन्य की हत्या के लिए यहां निचली अदालत ने दिसंबर 2014 में तीन व्यक्तियों संतोषानंद, सुदेवानंद और गोपालजी और अधिवक्ता रंजन द्विवेदी को उम्रकैद की सजा सुनाई थी.


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