बाहुबली शहाबुद्दीन के निधन के साथ ही क्या बदल जायेगी सिवान की सियासत ! पढ़िए इनसाइड स्टोरी

सिवान की राजनीति के साहेब व तीन दशकों से भी ज्यादा वक्त तक अपनी धमक रखने वाले राजद के वरिष्ठ नेता मो शहाबुद्दीन के निधन के बाद क्या सिवान की सियासत में बदलाव हो सकता है? कम से कम शहाबुद्दीन के निधन के बाद तो ऐसी बातों को ही बल मिल रहा है। दरअसल शहाबुद्दीन के मौत के बाद उनकी कोरोना रिपोर्ट के निगेटिव आने के बाद से शुरू हुई सियासत थमने का नाम नहीं ले रही है। इसमें राजनीतिक दलों के साथ शहाबुद्दीन के समर्थकों की भी सियासती बयानबाजी नजर आ रही है। उनके समर्थकों में सिवान के साथ ही राज्य के दूसरे हिस्सों के भी समर्थक हैं। जिनकी बातों से इस पूरे मसले पर जबरस्त आक्रोश देखने को मिल रहा है। दरअसल दशकों तक सिवान की राजनीति की धुरी रहे शहाबुद्दीन को पसंद करने वाले और नापसंद करने वालों की बड़ी संख्या रही है। सिवान की राजनीति में अपनी जबरदस्त पकड़ रखने वाले शहाबुद्दीन के निधन के बाद भी सियासत की धुरी उनके ही इर्द-गिर्द घूम रही है।
माले के साथ शहाबुद्दीन की सियासती जंग के बाद जिस तरीके से सिवान की राजनीति में बदलाव का दौर देखने को मिला, वह अब तक बदस्तूर जारी है। अमरनाथ यादव से चली सियासती अदावत के बाद ओमप्रकाश यादव और फिर अजय सिंह के साथ सियासी उठापठक के हर दौर को शहाबुद्दीन के साथ ही सिवान ने भी देखा। निर्दलीय विधायक के रुप में अपनी राजनीति की पारी शुरू करने वाले शहाबुद्दीन ने जिस पार्टी के साथ अपनी राजनीति को आगे बढाया, उसके साथ वह ताउम्र जुड़े रहे। पहले जनता दल फिर उसके बाद राजद बनने के बाद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के साथ उन्होंने हर कदम पर दिया। लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब सरपट दौड़ती राजनीति में चुनौती देने वाले भी सामने आ जाते हैं। पहले माले से चुनौती उसके बाद पूर्व सांसद ओमप्रकाश यादव की तरफ से मिली चुनौती को स्वीकार करने वाले शहाबुद्दीन ने जीत हा या हार हर स्तर पर स्वीकार किया। दरअसल वैसे तो ओमप्रकाश यादव सीवान से लगातार दो बार ( 2009, 2014 ) सांसद रहे हैं लेकिन उन्होंने शहाबुद्दीन के खिलाफ संघर्ष कर एक खास पहचान बनाई थी। ओमप्रकाश यादव ने सिवान में हुई हर उस घटना का पुरजोर तरीके से विरोध किया, जिसमें शहाबुद्दीन के शामिल होने के आरोप लगते रहे। सिवान में ओमप्रकाश यादव को शहाबुद्दीन के सबसे बड़े विरोधी के तौर पर जाना जाता है।
कभी शहाबुद्दीन के साथ रहे अजय सिंह भी बदलते वक्त के साथ शहाबुद्दीन के विरोधियों में शामिल हो गये। दरअसल दरौली से अजय सिंह की मां जगमातो देवी चुनाव लड़ती थी। 2011 में उनके निधन के बाद दरौंदा में उपचुनाव था। जिसमें अजय सिंह ने अपनी दावेदारी को पेश किया था। राजनीति में ऊंचा कद पाने की ललक में कभी साथ रहने वाले शहाबुद्दीन और अजय सिंह के बीच कालांतर में दूरियां बनती गयी। दरौंदा में होने वाले तबके उपचुनाव को लेकर अजय सिंह ने अपनी दावेदारी पेश की, जिसे तब सीएम नीतीश कुमार द्वारा ठुकरा दिया गया था। अविवाहित रहने वाले अजय सिंह ने पितृपक्ष में ही कविता सिंह से शादी की और कविता सिंह को टिकट मिला और वह पहली बार में ही विधायक चुन ली गयी। बिहार की राजनीति में 2011 से पहले अनजान रही कविता सिंह रातों रात सूबे की सियासत की चर्चित चेहरा बन गयी। 2019 तक विधायक रहने के बाद सिवान की लोकसभा सीट बीजेपी के बदले जदयू के खाते में गयी। जदयू ने कविता सिंह पर भरोसा जताया और कविता सिंह ने पहली बार में ही सांसद के रूप में जीत दर्ज कर अपनी पहचान को और पुख्ता कर लिया। हालांकि राजनीति के जानकारों की माने तो जदयू ने कविता सिंह को इसलिए टिकट दे दिया क्योंकि तब सिवान में लोकसभा प्रत्याशी के लिए कोई कद्दावर नेता नहीं मिल रहा था।
तो क्या कविता सिंह के आस-पास घूमेगी राजनीति
पहली बार में विधायक और पहली बार में सांसद चुनी गयी कविता सिंह की इतनी पहचान तो हो ही गयी है कि वह राजनीति के चर्चित चेहरों में शामिल रहे। कभी शहाबुद्दीन के तिलिस्मी गढ़ के रूप में चर्चित सिवान में अब फिजा काफी बदल चुकी है। शहाबुद्दीन के नहीं रहने के बाद अब सिवान की राजनीति में भी बदलाव आयेगा, यह तो तय है लेकिन बदलाव की यह धुरी किस किस के पास घूमती रहेगी। यह तो वक्त ही बतायेगा।