Holi:पहले संस्कृति,परंपरा और फूलों से बने रंगों से होती थी होली, अब डीजे की धुन में गायब होती होली की मिठास!

Holi: होली एक ऐसा पर्व जिसका लोगों का बेसब्री से लोगों को इंतजार रहता है। रंग गुलाल के बीच मस्ती हो या फिर परम्पराओं का निर्वहन। पर्व का मकसद कुरीतियों व बुराइयों का दहन कर आपसी भाईचारा को कायम रखना है लेकिन क्या आज परंपराओं का निर्वहन हो रहा है....

Holi:
डीजे की धुन में गायब होती होली की मिठास!- फोटो : Hiresh Kumar

Holi: होली की छुट्टी पर घर जाने से पहले कार्यालय में खुशी का माहौल था। सभी एक-दूसरे को गुलाल लगाकर होली की शुभकामना दे रहे थे। होली को लेकर मन में खासा उत्साह था, इसलिए घर जाने से पहले मैं भी यू-ट्यूब पर होली का गीत सर्च करने लगा। थोड़ी सी खोज के बाद मधुर आवाज में मनोज तिवारी मृदुल ने होली गीतों से त्योहार के उत्साह को दुगुना कर दिया। गीत के बोल से ही मन खुशी से झूम उठा।

सिया झारे लंबी केश, लक्षुमन लाई द ककहिया।

टू एमबीपीएस स्पीड के इंटरनेट पर बिना बफरिंग के

होली गीत से मैं कनेक्ट था। लेकिन अचानक मेरा ध्यान उस और गया। जहां पारंपरिक होली से आज लोगों का कनेक्शन टूट गया है। मनोज तिवारी के डोल की थाप ज्यों-ज्यों तेज होती गई। मैं अपने गाँव की होली के यादों की गहराईयों में उतरता चला गया। बसंती हवा के मस्तमौला होने के साथ ही फिजां में अजीब सी खुशबू तैर जाती। एक पखवारा पहले से ही गाँव में होली का असर दिखने लगता। गाँव का कौन-सा आदमी होली खेलने ससुराल जाएगा और गाँव में कौन मेहमान आएगा। इसकी चर्चा कई दिन पहले से शुरू हो जाती। हरिवंश बाबा एकाध सप्ताह पहले से फगुआ गीत गाना शुरू कर देते। हर रोज एक घर की बारी होती, जहाँ गवनई का आयोजन किया जाता। सुबह ही हरिवंश बाबा फैसला सुना देते। आज फलां की पारी है। जिनकी बारी होती उनके घर सूचना दे दी जाती। शाम के समय जिनके दालान पर गवनई होना होता। वे तैयारी में जुट जाते। गोधूली बेला में पूरा दल ढोल, झाल, मंजीरे के साथ दालान पर धमक जाता। फिर ढोलक की थाप पर फागुन जैसे वहाँ नृत्य करने लगता। बच्चे, बुड़े और नौजवान सब बिना किसी भेदभाव के बिना रंग-गुलाल के रंगीनियत में सराबोर हो जाते। ढोल, झाल, मजीरा और ताशा के आवाज का जादू बुढ़ी हड्डियों में भी जान डाल देने की काबिलियत रखता था। देर रात तक गानों का यह सिलसिला जारी रहता। हरिवंश बाबा अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके होली गीतों की तान आज भी कानों में गुंज जाती है।

बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बांगला में उड़ेला अबीर। होलिका जलाने के दिन पूरे गाँव का उत्साह देखते ही बनता था। कालीस्थान के पास होलिका जलाई जाती । बड़े लोग गीत गाते और बच्चे, नौजवान तार में आग का गोला लपेटकर गाँव से दूर निकल जाते। लौटती में बाबा समत की आग में तीसी के पौधे सेंककर लाते। तर्क था कि इससे मच्छर और खटमल दूर भागते हैं। होली की सुबह सत्येन्द्र सिंह के पूरे शरीर में पुआल बांधकर एक पुंछ लगा दिया जाता। इसके बाद वे काफी देर तक गाँव की गलियों में मुँह फुलाए हनुमानजी बनकर घुमते रहते। इस दौरान बच्चों का हुजूम उनके पीछे होता। जिस घर के सामने से टोली गुजरती भाभियां घुंघट के भीतर हंसते हुए रंग फेंक देती। दीदी, चाची और बूढी दादी टोली के लोगों को खाने के लिए पुआ देने लगती। दिन के दस बजते-बजते गाँव के तकरीबन सभी नालियों की उड़ाही हो जाती। दोपहर होते-होते होली का हुड़दंग और रंग खेलने का दौर समाप्त हो जाता। लेकिन मन में आस होती कि अभी होली का दूसरा दौर बाकी है। यह सोचकर होली का उत्साह कम नहीं होता।

नहाने-धोआने के बाद माँ हाथ में अबीर का एक पैकेट पकड़ा देती। नये सिलाए कुर्ता-पायजामा को पहनकर हम सब पोखरा पर मठिया की ओर बढ़ जाते। तब गाँव भर के लोग वहीं जमा होते थे। हम बड़ों के पैर पर अबीर रखकर उनसे आशीर्वाद लेते। बराबर के लोगों के मुँह में अबीर लगाकर गले मिलते। मन में इस बात का जरा भी आभास नहीं होता कि आज का आपसी सौहार्द्र कल फिर से वैमनस्य में बदल जाएगा। चेहरे, पैर और बालों में लगा अबीर होली के दिन दो लोगों के बीच हर दूरी को कम कर देता।

मठिया पर सब एक-दूसरे को अबीर लगाते। उधर हरिवंश बाबा अपनी टोली के साथ फागुन का अंतिम गवनई गा रहे होते। पुरब टोला के सुदामा राय उस टोली में पूरे उमंग के साथ शामिल होते। सेना की नौकरी में थे। लेकिन होली में छुट्टी लेकर गाँव जरूर आते। कोई टोली के बाहर बैठकर उनसे गाने की फरमाइश कर देता तो शुरू हो जाते।बाबा हरिहरनाथ, सोनपुर में होली खेले।....

होली के खत्म होने का असर सबसे अधिक हरिवंश बाबा पर ही देखने को मिलता। कोई टोक देता, 'ए बाबा कल आपका सब मस्ती उतर जाएगा। होली खतम हो गया।'

लेकिन हरिवंश बाबा निराश नहीं होते। बोलते, 'कुछ देगी खतम नहीं होता है। फागुन खतम हुआ त चैत शुरू हो गया। आदमी को जिंदादिल होना चाहिए।'

होली के अंतिम दिन मठिया पर रामाकांत उनको याद दिला दिया।

ए बाबा, फगुआ को बिदाई दिजिए और आज से ही चैता शुरू कर दिजिए। होली का अंतिम गीत बाबा चैता ही गाते।

कुरूवे क्षेत्र में करत भीसम प्रण, हरिजी से अर्ज गहाउं। इंद्र, वरूण, कुबेर चली अइहे, तबहु न अस्त्र उठाउं।

होली की खुमारी को बाचा के गीत रोम-रोम में वीर रस का स्वाद घोलकर कम नहीं होने देते। इधर आसमान में चाँद का चमक तेज होता। उधर रंगों के त्योहार होली को बिदाई देकर हम सब अपने अपने घर आ जाते।

हरिवंश बाबा हम सबको अलबिदा कर गए हैं। अब किसी के दालान पर होली के गवनई की बारी नहीं आती। सुदामा राय सेना की नौकरी से रिटायर होकर फिर नौकरी करने चले गए हैं। वे होली के मौके पर अब शायद ही कभी गाँव आते हों। सत्येन्द्र सिंह अब हनुमानजी बनकर गाँव की गलियों में नहीं घुमते। हाँ, टोली अब भी घुमती है। लेकिन उन्हें पुए नहीं मिलते। गाँव के लोग बताते है कि यह होली का हुड़दंग नहीं, लफुआगिरी है। शाम होते-होते कहीं न कहीं मारपीट की खबर आ जाती है। काफी अफसोस होता है। लेकिन गाँव की जिस होली से हमें बीमार की तरह लगाव था। अब गाँव की होली में अब जाने की इच्छा कुंद होने लगी है। हालांकि होली की यादें भीतर से आज भी कुरेदती रहती है।

एक बार फिर माहौल फिर पहले की तरह हो जाये। इसकी इच्छा हमेशा मन में बनी रहती है। इसी आस में पिछले साल होली के ऐन मौके पर गाँव के जनार्दन काका को फोन किया। मेरा वहीं सवाल कि इस बार गाँव का माहौल कैसा है?

जनार्दन काका का जवाब अप्रत्याशित था। बोले-इस साल भी हर साल की भांति घर-घर जाकर फगुआ नहीं गाया गया। टोली बनाकर सब घूम रहा है। लेकिन ढोल, मजीरा, झाल लेकर नहीं। ठेला पर बड़ा-बड़ा साउंड बॉक्स लादकर। उसमें सब डीजे बजा रहा है। पता नहीं चल रहा है कि फगुआ है कि चैता। गाना भी कैसा?

अइब जे मुँह महका के।

विजय काका बोले, 'बचवा काकी टोली को पुआ का । उल्टे दरवाजा बंद करके भीतर चली गई।'

लेकिन राजेश के बड़का बेटवा को देखे। टोली को देखकर खुशी से उछल गया और हाथ उठाकर जोर से बोला-होली हैहहहहहहहह......।

मैंने सिर पीटकर फोन काट दिया।

राजगीर सिह की विशेष रिपोर्ट

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