Bihar Vidhansabha Chunav 2025: राजनीतिक चर्चा से गायब हुआ परिवारवाद का मुद्दा, बिहार चुनाव में नहीं बना अहम विषय, जानें वजह

Bihar Vidhansabha Chunav 2025: राजनीति में परिवारवाद अक्सर चर्चा में आता है। हालांकि, समाज के अन्य पेशों में  जैसे अधिवक्ता का बेटा वकील बने, चिकित्सक का बेटा डॉक्टर, पत्रकार का बेटा मीडियाकर्मी — इसे परिवारवाद नहीं कहा जाता। वजह यह है कि ये सभी पेशे शिक्षा और काबिलियत के आधार पर बनाए जाते हैं। लेकिन राजनीति कोई पेशा नहीं, यह देश, क्षेत्र और समाज की सेवा है। इसमें शिक्षा की अनिवार्यता नहीं है; निरक्षर भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन सकते हैं। इसीलिए जब कोई राजनेता अपने परिजन को आगे करता है, तो इसे परिवारवाद कहा जाता है।

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में यह मुद्दा भी सामने आया। दोनों चरणों के लिए नामांकन प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और कई दलों ने अपने परिवार के सदस्यों को टिकट दिए। हालांकि, वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक लव कुमार मिश्रा कहते हैं, “बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में परिवारवाद कोई मुद्दा नहीं है, यह परंपरा बन चुका है। जनता इसे स्वीकार कर रही है। पहले रजवाड़ों में देखा गया कि परिवार के अलावा नौकर-चाकर भी सदन में भेज दिए जाते थे। अब तो पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह तक भाजपा में परिवारवाद को जारी रखते हैं।”

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि परिवारवाद हर बार चर्चा में आता है। चुनाव से पहले यह चर्चा भी चली कि नीतीश अपने बेटे निशांत कुमार को लांच कर सकते हैं। हालांकि, नीतीश ने हमेशा परिवारवाद के खिलाफ बात की है। उनके लिए ऐसा करना उनके सिद्धांतों पर सवाल उठाता और चुनावी स्थिति को कमजोर कर सकता था।

बिहार में कई बड़े राजनीतिक परिवारों ने अपने सदस्यों को आगे बढ़ाया है।लालू प्रसाद यादव ने चारा घोटाले में इस्तीफा देने के बाद पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया और बाद में बेटे को उत्तराधिकारी बनाया। उनकी बड़ी बेटी सांसद बनी।राम विलास पासवान के परिवार ने भाइयों और बेटे चिराग पासवान को विधान सभा और केंद्रीय मंत्री पद दिलाया।जीतन राम मांझी ने बेटे और बहू-समधन को राजनीतिक जिम्मेदारी सौंपी।

अन्य उदाहरण भी हैं:

सांसद सुरेंद्र यादव का बेटा विश्वनाथ सिंह, पूर्व सांसद शहाबुद्दीन का बेटा ओसामा शहाब, पूर्व मंत्री कांति सिंह के बेटे ऋषि कुमार, पूर्व सांसद राजेश कुमार के बेटे सर्वजीत पासवान, विधायक कौशल यादव की पत्नी पूर्णिमा देवी, पूर्व विधायक शशि कुमार राय के भाई नंद कुमार राय, और कई अन्य राजनीतिक परिवारों के सदस्य।

इस सूची से स्पष्ट होता है कि बिहार में राजनीतिक परिवारवाद सुव्यवस्थित परंपरा बन चुका है। आम जनता और राजनीतिक दल इसे अब अस्वीकृत नहीं करते; इसे राजनीतिक संस्कृति के रूप में देखा जाता है।

इस चुनाव में परिवारवाद पर चर्चा जरूर हो रही है, लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि यह किसी भी दल के लिए निर्णायक मुद्दा नहीं बनेगा। इसके बजाय जनता विकास, कानून-व्यवस्था और रोजगार के मुद्दों पर अधिक ध्यान दे रही है।

यानी, बिहार में राजनीति में उत्तराधिकारी, बेटे-बेटी या बहू-दामाद को आगे करना अब असामान्य नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप माना जाता है। चुनाव में यह मुद्दा संसदीय बहस और जनमत का हिस्सा जरूर बनेगा, लेकिन निर्णायक नहीं।