चुनावी ताल बेमिसाल,मोदी का मास्टर स्ट्रोक,आधी आबादी को बनाया सियासी आधार,विशेष सत्र में यूज किया स्पेशल राजनीतिक हथियार, इंडी अलायंस पर NDA ने दर्ज की पहली मनोवैज्ञानिक जीत...

चुनावी ताल बेमिसाल,मोदी का मास्टर स्ट्रोक,आधी आबादी को बनाया सियासी आधार,विशेष सत्र में यूज किया स्पेशल राजनीतिक हथियार, इंडी अलायंस पर NDA ने दर्ज की पहली मनोवैज्ञानिक जीत...

नई संसद में पहले दिन ही मोदी सरकार ने आधी आबादी को अपने पाले में करने के लिए  बड़ा दाव खेलते हुए महिला आरक्षण बिल पेश किया. साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इसे मोदी सरकार का 'मास्‍टर स्‍ट्रोक' बताया जा रहा है.महिला आरक्षण विधेयक बीते 27 साल से पास होने का इंतज़ार कर रहा है. भारत के कई राजनीतिक दल संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण का विरोध करते रहे हैं. भारत में महिला आरक्षण बिल की यात्रा काफी लंबी रही है. इतनी लंबी की इसमें 27 साल लग गए और 8 बार पेश करना पड़ा, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका.यह बिल पहली बार देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार में 12 सितंबर, 1996 को लाया गया था. ये 81वें संशोधन विधेयक के रूप में लोकसभा में पेश हुआ था. हालांकि, विधेयक सदन से पारित नहीं हो सका और लोकसभा भंग होने के साथ विधेयक भी लटक गया.इस बार भी बिल को पास होने के लिए जितने समर्थन की जरूरत थी उतना नहीं मिला और यह फिर से लटक गया. बाद में इसे 1999, 2002 और 2003 में वाजपेयी सरकार के दौरान ही फिर से पेश किया गया, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली. पीएम मोदी ने भी कहा कि आजादी से लेकर अब तक संसद के दोनों सदनों को मिलाकर लगभग 7500 सांसदों ने योगदान दिया, जिसमें महिला सांसद करीब 600 के आस-पास रहीं. भाजपा को  आने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में इसका फायदा भी हो सकता है .

महिला आरक्षण की मांग का इतिहास काफी पुराना है. सियासत में महिलाओं की हिस्सेदारी भी पुरुषों के समान हो, इसकी मांग 1931 में ही उठने लगी थी. देश की आजादी के आंदोलन के दौरान महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण के मुद्दे पर चर्चा हुई थी. साल 1935 भारत सरकार अधिनियम के तहत महिलाओं को विधायिका में आरक्षण दिया गया था.1937 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास हुआ था तब यूनाइटेड प्रोविंस यानी उत्तर प्रदेश में तीन फीसदी महिला आरक्षण दिया गया था. इस तरह यूपी में उस समय 201 विधानसभा सीटें हुआ करती थी, जिसमें छह सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित थी. 1937 के यूपी विधानसभा चुनाव में विधानसभा चुनाव हुए तो एक दर्जन महिलाएं विधायक बनने में कामयाब रही थीं, जिनमें छह महिलाएं रिजर्व और छह महिला अनरिजर्व सीटें जीती थीं. पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित रिजर्व महिला सीट से ही जीतकर पहली बार विधायक चुनी गईं थी. विजयलक्ष्मी को यूपी में हेल्थ मिनिस्टर बनाया गया था. इस तरह आजादी से पहले की कैबिनेट में भी वो पहली महिला मंत्री हुईं.1951-52 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के एक साथ हुए. यूपी से महज चार महिलाएं ही सांसद चुनकर आई थीं और दस से कम महिला विधायक चुनी गई थीं. उमा नेहरू, गंगा देवी, विजय लक्ष्मी पंडित, नायर शकुंतला आजादी के बाद यूपी से चुनी गई महिला सांसद थी जबकि देश में कुल 24 महिलाएं सांसद चुनी गई थी. इसके बाद महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार घटता गया और नब्बे के दशक के बाद महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा, लेकिन उनकी आबादी के अनुपात में बहुत कम था.

तो वहीं वैश्विक स्तर पर महिलाओं को सम्माजनक स्थान देने के लगातार प्रयास होते रहे हैं.संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिलाओं पर केंद्रित चार विश्व सम्मेलन आयोजित किए गए, जो क्रमशः 1975 में मेक्सिको में, 1980 में कोपेनहेगन में, 1985 में नैरोबी में और 1995 में बीजिंग में हुए. बीजिंग घोषणा पत्र जारी किया गया और सभी सदस्य देशों से उस पर त्वरित कार्रवाई की अपेक्षा की गई. सम्मेलन में शामिल सभी 189 देशों द्वारा सर्वसम्मति से घोषणा पत्र को अपनाया गया और त्वरित कार्रवाई करने का वचन दिया गया. बीजिंग घोषणा पत्र में एक प्रमुख प्रावधान महिलाओं के लिए आरक्षण का भी था. बीजिंग सम्मेलन के बाद भारत की सरकारों ने भी इसमें बढ़-चढ़कर रुचि दिखानी शुरू कर दी. यह अलग बात है कि जब भी सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की कोशिश की तो उसे पिछड़ी जाति के नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ा

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने वाला ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ स्वागत योग्य तो है ही, इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि यह नए संसद भवन के पहले दिन की कार्यवाही का हिस्सा बना। नए संसद भवन की इससे शानदार कोई और शुरुआत हो भी नहीं सकती थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उचित ही कहा है कि इससे भारतीय लोकतंत्र मजबूत होगा.लोकसभा में एनडीए सरकार को भारी बहुमत हासिल है और राज्यसभा में भी उसका फ्लोर प्रबंधन अच्छा है, ऐसे में इस विधेयक को कानून बनने में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए. काफी लंबे समय से देश की आधी आबादी को ऐसे कानून की प्रतीक्षा थी और अब जब महिला मतदाता 18वीं लोकसभा को चुनने के बहुत करीब हैं, तब यह विधेयक उन्हें बेहतर कल की आश्वस्ति देता है. निस्संदेह, इस मुकर्रर नुमाइंदगी के लिए उन्हें कुछ साल इंतजार करना होगा, मगर इससे स्त्री सशक्तीकरण की प्रक्रिया को एक पुख्ता आधार मिल गया है.

हमारे संविधान-निर्माताओं ने देश के नागरिकों को मताधिकार देते समय उनमें किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया था, और तथ्य यह भी है कि आजादी के पिछले साढ़े सात दशकों में देश के तमाम महत्वपूर्ण पदों को महिलाएं सुशोभित कर चुकी हैं, मगर यह उपलब्धि हमारे लोकतंत्र की स्वाभाविक परिणति के बजाय प्रतीकवाद की ही देन अधिक रही. यही कारण है कि तमाम शैक्षणिक-भौतिक तरक्की के बावजूद जन-प्रतिनिधित्व के मामले में महिलाओं में खास प्रगति नहीं हुई. प्रधानमंत्री ने सोमवार को जब पिछले संसद भवन के आखिरी दिन अब तक के माननीयों की संख्या बताई, तब महिला और पुरुष सांसदों का वैषम्य हमारे लोकतंत्र को मुंह चिढ़ाता हुआ दिखा. दोनों सदनों में कुल मिलाकर 7,500 सांसदों ने अपना योगदान दिया है, मगर उनमें महिला सांसदों की संख्या कितनी रही? महज 600; आज भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 15 फीसदी के नीचे ही है.