Acharya Kishore Kunal:पूर्व आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल को आज सुबह निधन हो गया है. जानकारी के अनुसार उन्हें हार्ट अटैक आया था. जिसके बाद तुरंत उन्हें महावीर वत्सला अस्पताल ले जाया गया, जहां उनका निधन हो गया. किशोर कुणाल एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी थे और अयोध्या मंदिर ट्रस्ट के संस्थापकों में से एक थे. किशोर कुणाल सख्त, इमानदार अधिकारी थे. उन्होंने बॉबी हत्याकांड का खुलासा कर हड़कंप मचा दिया था।
साल 1983 का समय। बिहार विधानसभा में कार्यरत एक युवती की आकस्मिक मृत्यु हो जाती है। मात्र चार घंटे के भीतर, उसके शव को चुपचाप दफना दिया जाता है। यह घटना एक समाचार पत्र के संज्ञान में आती है, जिसके बाद आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल सक्रिय हो जाते हैं। जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती है, कई रहस्यों से पर्दा उठता है। युवती को दफनाने की यह जल्दबाजी सामान्य नहीं थी। उसकी मृत्यु के बाद दो अलग-अलग रिपोर्टें तैयार की गई थीं, जिनमें मृत्यु के कारण भिन्न-भिन्न बताए गए थे। जांच में कुछ प्रमुख व्यक्तियों के नाम सामने आते हैं, यह पता चलता है कि युवती के प्रभावशाली लोगों से संबंध थे। पुलिस पर मामले को दबाने का दबाव था, लेकिन जांच अधिकारी किशोर कुणाल अडिग रहते हैं।युवती के शव को निकालकर पोस्टमार्टम किया जाता है, और जो रिपोर्ट सामने आती है, उससे बिहार में हड़कंप मच जाता है। इसके बाद राजनीति का असली खेल शुरू होता है। सत्ता किस प्रकार न्याय को दबाने में सक्षम होती है, यह कहानी उसी की है।
11 मई 1983 को पटना से प्रकाशित एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र में एक महत्वपूर्ण खबर प्रकाशित हुई थी। यह खबर एक युवती की मृत्यु से संबंधित थी, जिसका नाम श्वेता निशा त्रिवेदी था। श्वेता बिहार विधानसभा में टाइपिस्ट के रूप में कार्यरत थी और वह कांग्रेस की एक प्रमुख नेता तथा विधान परिषद की तत्कालीन सभापति राजेश्वरी सरोज दास की गोद ली हुई बेटी थी। 35 वर्षीय श्वेता निशा अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती थी और घर में उनका उपनाम 'बेबी' था। यह मामला 'बॉबी हत्याकांड' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि बॉबी के शव को इतनी जल्दी दफनाने का निर्णय क्यों लिया गया और उसे कहाँ दफनाया गया। एक पुलिस अधिकारी को इस मामले में कुछ संदिग्धता प्रतीत हो रही थी।
इस पुलिस अधिकारी का नाम किशोर कुणाल था। कुणाल उस समय पटना के SSP के पद पर कार्यरत थे। 2021 में उन्होंने 'दमन तक्षकों का' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने इस मामले से संबंधित कई महत्वपूर्ण जानकारी साझा की। क्रमबद्ध तरीके से आगे बढ़ते हुए, कुणाल ने समाचार पत्र की एक रिपोर्ट के आधार पर मामले की जांच आरंभ की। उन्होंने सबसे पहले बॉबी की माता, राजेश्वरी सरोज दास, से पूछताछ की। दास ने उन्हें बताया कि 7 मई की शाम को बॉबी अपने घर से बाहर गई थी और देर रात वापस लौटी। घर लौटते ही उसने पेट में दर्द की शिकायत की, जिसके बाद उसे खून की उल्टियां होने लगीं। तत्परता से उसे पटना मेडिकल कॉलेज ले जाया गया और इमरजेंसी वार्ड में भर्ती किया गया।
इसके बाद उसे घर भेज दिया गया, जहां उसकी मृत्यु हो गई। दास के पास से पुलिस को कुछ ऐसा मिला जिससे यह स्पष्ट हो गया कि इस मामले में कुछ अनियमितता अवश्य है। वास्तव में, बॉबी की मृत्यु के बाद दो रिपोर्टें तैयार की गई थीं। एक रिपोर्ट में कहा गया था कि मृत्यु का कारण आंतरिक रक्तस्राव है, जबकि दूसरी रिपोर्ट में यह बताया गया कि बॉबी की मृत्यु दिल के दौरे से हुई है। एक रिपोर्ट में मृत्यु का समय सुबह चार बजे दर्ज था, जबकि दूसरी में चार बजे और आधे का समय लिखा गया था। असल में मृत्यु का कारण और समय जानने का केवल एक ही तरीका था। अधिकारी कुणाल ने निर्णय लिया कि बॉबी का शव निकालकर पोस्टमार्टम कराया जाएगा। अदालत से अनुमति लेकर पोस्टमार्टम किया गया, और उसमें से एक अलग तथ्य सामने आया। बॉबी के विसरा की जांच में 'मेलेथियन' नामक जहर पाया गया। इस रिपोर्ट ने पुलिस के संदेह को वास्तविकता में बदल दिया। अब यह स्पष्ट हो चुका था कि बॉबी की हत्या की गई थी।
अब यह जानने का समय था कि बॉबी को जहर किसने दिया। कुणाल ने बॉबी के पिछले जीवन की जांच की, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि बॉबी का प्रभावशाली लोगों के साथ घनिष्ठ संबंध था। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया कि 1978 में जब बॉबी को विधानसभा में नौकरी मिली, तब वहां एक विशेष प्राइवेट एक्सचेंज बोर्ड स्थापित किया गया था। यह केवल इस उद्देश्य से किया गया था कि बॉबी को टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी मिल सके। बाद में वह बोर्ड बंद कर दिया गया और बॉबी को टाइपिस्ट की नौकरी मिल गई। विधानसभा में अपनी नौकरी के दौरान, उसकी कई नेताओं और विधायकों के साथ अच्छी जान-पहचान हो गई थी। जांच के सिलसिले में, कुणाल एक बार फिर बॉबी की माताजी के सरकारी आवास पर गए। वहां उन्होंने देखा कि बॉबी की कुछ चीजें गायब थीं। उसी सरकारी आवास के पास एक आउट हाउस था, जहां दो युवक निवास करते थे। पुलिस ने उनसे पूछताछ की, और उन युवकों ने बताया कि 7 मई की रात वहां बॉबी से मिलने के लिए एक व्यक्ति आया था, जिसका नाम रघुवर झा था। रघुवर झा कांग्रेस से संबंधित था।
कुणाल अपनी पुस्तक में उल्लेख करते हैं कि रघुवर झा के बारे में उन्हें बॉबी की माता राजेश्वरी सरोज दास से जानकारी मिली थी। दास के अनुसार, रघुवर झा ने बॉबी को एक दवा दी थी, जिसके परिणामस्वरूप उसकी स्वास्थ्य स्थिति बिगड़ने लगी और अंततः उसकी मृत्यु हो गई। चूंकि बॉबी ने ईसाई धर्म अपनाया था, उसे दफनाया गया। पुलिस के अनुसार, इस मामले का मुख्य आरोपी विनोद कुमार था, जिसने रघुवर झा के निर्देश पर नकली डॉक्टर का किरदार निभाते हुए बॉबी को दवा दी। चूंकि इस मामले में एक प्रमुख नेता के पुत्र का नाम शामिल था, इसलिए यह मामला उच्च प्रोफ़ाइल बन गया। पुलिस की जांच के दौरान, सत्ता के गलियारों में हड़कंप मच गया। मामला अदालत में पहुंचा, जहां राजेश्वरी दास ने अपने बयान में बताया कि कैसे नकली डॉक्टर के माध्यम से बॉबी का इलाज किया गया और एक झूठी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट तैयार की गई।
केस की जानकारी अब स्थानीय समाचार पत्रों से लेकर राष्ट्रीय स्तर के अखबारों तक फैल चुकी थी। धीरे-धीरे इस मामले में कई अन्य व्यक्तियों के नाम भी सामने आए, जिनमें कुछ सत्ताधारी विधायक और मंत्री शामिल थे। जल्द ही इस मामले में राजनीतिक रंग भी चढ़ गया। विपक्ष की कम्युनिस्ट पार्टी ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री आरोपियों को गिरफ्तार न करने के लिए पुलिस पर दबाव बना रहे हैं। विपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर इस मामले में बार-बार सीबीआई जांच की मांग कर रहे थे। कुणाल ने लिखा है कि इस केस में उन पर काफी दबाव था। उनके वरिष्ठ अधिकारी ऐसे व्यवहार कर रहे थे मानो सच का पता लगाकर उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। ऐसे में एक दिन कुणाल के पास सीधे मुख्यमंत्री का फोन आया। जगन्नाथ मिश्र उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे। कुणाल ने लिखा है कि मुख्यमंत्री ने उनसे पूछा, "ये बॉबी कांड का मामला क्या है?"
कुणाल ने उत्तर दिया, सर, कुछ मामलों में आपकी छवि संतोषजनक नहीं है, लेकिन आपके चरित्र में कोई दोष नहीं है। यदि आप इस मामले में शामिल होते हैं, तो यह एक ऐसी समस्या है जिससे आपको नुकसान हो सकता है। इसलिए, कृपया इससे दूर रहें। किताब के अनुसार, यह उत्तर सुनकर मुख्यमंत्री ने फोन रख दिया। इसके बाद क्या हुआ? चूंकि यह मामला नेताओं की प्रतिष्ठा से संबंधित था, इसलिए सरकार पर भी दबाव बढ़ रहा था। इस बीच, मई 1983 में लगभग 40 विधायकों और मंत्रियों की एक टीम मुख्यमंत्री से मिली। कहा जाता है कि सरकार को बचाने के लिए जग्गनाथ मिश्र दबाव में आ गए और 25 मई को यह मामला CBI को सौंप दिया गया। CBI ने दिल्ली से एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें कहा गया कि यह मामला हत्या का नहीं है।सीबीआई ने इसे आत्महत्या का मामला मानकर बंद कर दिया। किशोर कुणाल हमेशा यह कहते रहे कि उनके अनुसार यह एक हत्या का मामला था।