Bihar News: महज 18 की उम्र में फांसी का फंदा चूमने वाले अमर शहीद, मुजफ्फरपुर में गूंजा ‘एक बार विदाई दे मां…’

Bihar News: खुदीराम का बलिदान सिर्फ़ एक जान की कुर्बानी नहीं था, बल्कि यह उस समय के युवाओं के लिए एक खुली चुनौती थी कि आज़ादी भीख में नहीं, लहू से मिलती है।

Amar Shaheed Khudi Ram Bose
‘एक बार विदाई दे मां घूरे आसी, हांसी हांसी परबो फांसी…’ - फोटो : reporter

Bihar News:  सोमवार की अलसुबह 3 बजे, जब बाकी शहर नींद में था, मुजफ्फरपुर सेंट्रल जेल का गेट खुला और इतिहास एक बार फिर सांस लेने लगा। 118वें शहादत दिवस पर अमर शहीद खुदीराम बोस को श्रद्धांजलि देने के लिए जेल परिसर देशभक्ति की लहर में डूब गया।मुझे उस पथ पर फेंक देना, जिस पथ जाएं वीर अनेक…"  ये सिर्फ़ कविता की पंक्ति नहीं, बल्कि उस नवयुवक की जिंदगी का सार थी, जिसने महज़ 18 साल की उम्र में अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी। नाम था खुदीराम बोस  वह क्रांतिकारी, जिसके नाम से अंग्रेजी शासन के अफसर तक कांपते थे।1908 का दौर था, जब बंगाल विभाजन के खिलाफ़ लहर उठ चुकी थी। कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड के दमनकारी रवैये से तंग आकर, खुदीराम और उनके साथी प्रफुल्ल चंद्र चाकी ने 30 अप्रैल को मुजफ्फरपुर में बग्घी पर बम फेंका। अफ़सोस, निशाना किंग्जफोर्ड नहीं बल्कि उसमें सवार दो महिलाएं बनीं। लेकिन इस वारदात ने ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया।

अंग्रेजी पुलिस ने चारों तरफ नाकाबंदी कर दी। खुदीराम मीलों पैदल चलते रहे, पर समस्तीपुर के पूसा स्टेशन से गिरफ्तार कर लिए गए। मुकदमा चला, और वह भी स्पीडी ट्रायल की तरह  हफ्तों में फांसी का फरमान सुना दिया गया।इतना ही नहीं, ब्रिटिश हुकूमत इतनी डरी हुई थी कि 11 अगस्त 1908 की अलसुबह, अंधेरे में ही उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया  ताकि सुबह का सूरज उनके जनसमर्थन का गवाह न बन पाए। लेकिन अंग्रेजों की यह चाल नाकाम रही, क्योंकि खुदीराम के चेहरे पर आखिरी सांस तक मुस्कान थी, मानो मौत को भी चुनौती दे रहे हों।

कहते हैं, फांसी के तख़्ते तक वह दृढ़ कदमों से, सिर ऊंचा कर, अपने पसंदीदा गीत “एक बार विदाई दे मां…” की धुन पर बढ़ते गए। दर्शकों के बीच कोई रो रहा था, कोई नारे लगा रहा था, और कोई अपने बच्चों को दिखा रहा था कि “देखो बेटा, ये है असली वीर।”खुदीराम का बलिदान सिर्फ़ एक जान की कुर्बानी नहीं था, बल्कि यह उस समय के युवाओं के लिए एक खुली चुनौती थी  कि आज़ादी भीख में नहीं, लहू से मिलती है।

आज, 118 साल बाद भी, मुजफ्फरपुर की हवा में उनका नाम गूंजता है। फांसी स्थल की मिट्टी अब भी गवाही देती है कि कभी यहां एक 18 साल का लड़का आया था, जिसने अपनी हंसी से साम्राज्यवाद के होश उड़ा दिए थे।

 रंग-बिरंगी लाइटों से सजे परिसर में हुमाद की भीनी खुशबू तैर रही थी। बैकग्राउंड में वही अमर गीत  ‘एक बार विदाई दे मां घूरे आसी, हांसी हांसी परबो फांसी…’  जो खुदीराम के आखिरी पलों का साथी था, हवा में गूंज रहा था। सुबह होते-होते जेल गेट पर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी।

तिरहुत प्रक्षेत्र के कमिश्नर, डीएम सुब्रत सेन, एसएसपी, सिटी एसपी, एएसपी टाउन, एस पूर्वी, मिठनपुरा थानाध्यक्ष समेत कई अधिकारी समय पर पहुंचे। मेदिनापुर से आए लोगों ने शहीद के गांव की पवित्र माटी और काली मंदिर का प्रसाद फांसी स्थल पर अर्पित किया। माटी में पौधे लगाए गए, मानो बलिदान की जड़ों को और गहरा कर दिया गया हो।

ठीक 3:50 बजे  वही समय, जब 11 अगस्त 1908 को खुदीराम ने हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमा था  सभी ने उन्हें सलामी दी और पुष्पांजलि अर्पित की। इसके बाद श्रद्धालु और अधिकारी उस ऐतिहासिक सेल तक पहुंचे, जहां कभी इस 18 वर्षीय क्रांतिकारी को रखा गया था।डीएम सुब्रत सेन ने कहा, “खुदीराम ने जो बलिदान कम उम्र में दिया, वह युवाओं के लिए अमर प्रेरणा है। हमें देश की एकता और अखंडता के लिए उनसे सीख लेनी चाहिए।”

खुदीराम की कहानी जितनी प्रेरक है, उतनी ही दिल दहला देने वाली भी। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में आंदोलन पूरे उफान पर था। कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड के क्रूर दंडों से आक्रोशित होकर, खुदीराम और उनके साथी प्रफुल चंद्र चाकी ने 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर में उसके बंगले के पास बग्घी पर बम फेंका। किस्मत का खेल कि गाड़ी में किंग्जफोर्ड नहीं था — दो महिलाएं मारी गईं।

घटना के बाद खुदीराम कई किलोमीटर पैदल चले, लेकिन समस्तीपुर के पूसा स्टेशन से गिरफ्तार हो गए। स्पीडी ट्रायल में फांसी की सजा सुनाई गई। 11 अगस्त 1908 को, सिर्फ़ 18 साल की उम्र में, वो मुस्कुराते हुए फंदे पर झूल गए और अमर हो गए।आज, एक सदी से ज़्यादा वक्त बाद भी, मुजफ्फरपुर की जेल की हवा, वो गीत और वो मिट्टी, इस बात का सबूत हैं कि कुछ बलिदान वक्त की धूल से ढकते नहीं  वे आने वाली पीढ़ियों की रगों में बहते हैं।

रिपोर्ट- मणिभूषण  शर्मा