Bihar Land Survey: बिहार सरकार ने दाखिल-खारिज की मनमानी पर कसा शिकंजा,इस कारण बढ़ाई गई CO साहब की ड्यूटी, सरकार के नए आदेश से खलबली

ज़मीन केवल मिट्टी का टुकड़ा नहीं होती, वह व्यक्ति की पहचान, उसके श्रम का मूल्य और उसकी पीढ़ियों की गाथा होती है। ऐसे में दाखिल-खारिज जैसी प्रक्रिया में पारदर्शिता स्थापित करना केवल प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक न्याय की पुनर्स्थापना है।

Bihar Land Survey
बढ़ाई गई CO साहब की ड्यूटी- फोटो : social Media

Bihar Land Survey:बिहार की राजनीति का परिदृश्य केवल विधानमंडल की बहसों या सड़कों पर जुलूसों तक सीमित नहीं है। असली राजनीति उस मिट्टी में भी पलती है, जहां किसान की हथेली का पसीना और भू-स्वामी की उम्मीदें मिलकर रोटी और रोज़गार गढ़ती हैं। लेकिन जब उसी भूमि के कागज़ात, दाखिल-खारिज जैसे मूलभूत अधिकार, मनमानी के मकड़जाल में उलझ जाएँ, तो लोकतंत्र का आधार ही डगमगा उठता है। यही कारण है कि बिहार सरकार ने भूमि संबंधी मामलों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए अब निर्णायक कदम उठाया है।

राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग ने यह साफ़ कर दिया है कि दाखिल-खारिज के मामलों में अब किसी भी प्रकार की मनमानी अस्वीकृति नहीं चलेगी। हाल के दिनों में राज्य के विभिन्न जिलों से शिकायतों की बाढ़ आ गई थी कि आवेदनकर्ताओं के कागज़ात बिना किसी ठोस कारण बताए रद्द कर दिए जा रहे हैं। यह न केवल प्रशासनिक लापरवाही का उदाहरण था, बल्कि आम जनता के साथ विश्वासघात भी। ऐसे माहौल में विभाग के संयुक्त सचिव का पत्र किसी चेतावनी से कम नहीं। अब हर अस्वीकृत आवेदन के पीछे लिखित कारण दर्ज करना होगा और उसकी कॉपी सीधे रैयत यानी भूमि स्वामी या आवेदनकर्ता को सौंपी जाएगी।

यह निर्णय केवल एक आदेश भर नहीं है, बल्कि उस लंबे संघर्ष का हिस्सा है, जिसमें भूमिपुत्र वर्षों से न्याय की मांग कर रहे थे। जब कोई किसान दाखिल-खारिज के लिए महीनों चक्कर लगाता है और अंततः उसे "अस्वीकृत" शब्द से नवाज़ा जाता है, तो यह केवल प्रशासनिक अन्याय नहीं होता, बल्कि उस किसान की आत्मा पर चोट होती है। बिहार सरकार का यह ताज़ा कदम इसी दर्द को दूर करने की दिशा में उठाया गया है।

अब तस्वीर यह होगी कि बिना कारण बताए कोई भी अधिकारी आवेदन खारिज नहीं कर सकेगा। हर जिला पदाधिकारी को यह आदेश दिया गया है कि इन निर्देशों का शत-प्रतिशत पालन कराया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ और शिकायतें जारी रहीं, तो संबंधित अंचलाधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई तय है। यह प्रशासनिक चेतावनी, उस पारंपरिक "चलता है" संस्कृति पर सख़्त प्रहार है, जो वर्षों से भूमि सुधार विभाग की कार्यप्रणाली को खोखला करती आई है।

 वर्तमान में बिहार के विभिन्न अंचल कार्यालयों में दाखिल-खारिज से जुड़े 50,000 से अधिक आवेदन लंबित हैं। इनमें से कई ऐसे हैं, जिन्हें दाखिल किए 75 दिन से भी अधिक समय हो चुका है, लेकिन अब तक उन पर कोई निर्णय नहीं हुआ। यह आंकड़ा प्रशासनिक सुस्ती का जीवंत प्रमाण है। यही कारण है कि सरकार ने अब ज़िम्मेदारी तय करते हुए स्पष्ट किया है कि हर अस्वीकृति का जवाब लिखित और पारदर्शी होना चाहिए।

राजनीतिक नज़रिए से देखा जाए, तो यह कदम नीतीश कुमार सरकार की छवि को एक बार फिर "सुशासन" के विमर्श से जोड़ने की कोशिश है। विपक्ष चाहे इसे प्रशासनिक विफलताओं को ढकने का प्रयास बताए, लेकिन सच्चाई यही है कि यदि इस आदेश का सख़्ती से पालन हुआ, तो लाखों ज़मीन मालिकों को राहत की नई किरण दिखाई देगी।

दरअसल, ज़मीन केवल मिट्टी का टुकड़ा नहीं होती, वह व्यक्ति की पहचान, उसके श्रम का मूल्य और उसकी पीढ़ियों की गाथा होती है। ऐसे में दाखिल-खारिज जैसी प्रक्रिया में पारदर्शिता स्थापित करना केवल प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक न्याय की पुनर्स्थापना है।